राजस्थान के पष्चिम के थार के दूर तक फेैले मरूस्थल में बसा एक छोटा सा शहर जिसकी पहचान आज भुजिया व पापड़ के साथ साथ साझा संस्कृति के लिए भी पूरी दुनिया में की जाती है। जी हाॅं मैं बात कर रहा हूॅं बीकानेर की। मेरा शहर बीकानेर, हमारा शहर बीकानेर। मेरे शहर में आते ही एक मस्ती और उमंग का अनुभव होता है। बीकानेर की गलियों में संस्कृति बसती है, अपनापन बसता है, यहाॅं के लोग स्वभाव से फक्कड़ व मस्त है, यहाॅं के लोगों में आदमीयत की पहचान है। मेरे शहर में आकर आप किसी का पता पूछोगे तो साथ चलकर उस पते के घर तक छोड़ कर आएगा मेरे शहर का आदमी और बाहर से ही आवाज लगाएगा ‘भाईजी थोरे कोई आयो है’ । बीकानेर के लोग बाहर से आने वाले को यह नहीं पूछते कि घर ढूॅंढ़ने में परेषानी तो नहीं हुई। इक्कसवीं सदी के विकास के इस दौर में विज्ञान की सफलताओं के साथ मेरे शहर ने तहजीब व अपनेपन से किनारा नहीं किया है। मेरा शहर पाटों व धूणियों पर बसता है। यहाॅं के लोग दिन भर की मेहनत के बाद अपने समाज व दोस्तों के साथ बैठना नहीं भूलते। बीकानेर के लोग हिन्दी फिल्मों व गानों को सुनते व गुनगुनाते तो है मगर गणगौर के वक्त पाटों पर बैठकर गणगौर के गीत भी गाते है।
मेरे शहर में आदमी के साथ साथ जानवरों की भी चिन्ता की जाती है, यहाॅं आज भी जब कुत्तों के पिल्ले होते हैं तो गली मौहल्ले के लड़के अपने पूरे मौहल्ले में घूमकर आटा व तेल इकट्ठा करते है और अपने गली की कुतिया के लिए हलवा बनाते हेैं। आज भी शहर के बड़ा बाजार सहित कईं स्थानों पर रात को लोग रोटीयाॅं बनाते मिलेंगे अपने लिए नहीं बल्कि शहर के जानवरों के लिए। जी हाॅं फिर ये सारी रोटियाॅं घूमघूम कर शहर के जानवरों को खिलाई जाती है और यह काम एक दिन का नहीं रोज का है। यहाॅ के जानवर भी अपने लोगों की भाषा पहचानते है अगर आपको इसका नजारा देखना हो तो कभी लक्ष्मीनाथजी के मंदिर या भैरव कुटिया की तरफ जाइएगा जहाॅं किसी के लूना के हार्न की आवाज सुनकर कोैए इक्ट्ठे हो जाते हैं तो कहीं किसी की टिचकारी पर गायें आ जाती है। कोई अपने साईकिल की घंटी से कबूतरों को बुलाता है तो कोई अपने आने की आहट मात्र से कुत्तों को इकट्ठा करता है और ये सब लोग किसी न किसी तरह इन जानवरों को चुग्गा दाना या रोटी डालते है।
समाजवाद के सिद्धांत को अमलीजामा पहना देंखेगे आप इस शहर में। यहाॅं अमीर गरीब में भेद नहीं है। चाहे कितना भी बड़ा सेठ साहूकार हो या गरीब से गरीब आदमी शाम के वक्त पाटों पर धूणियों पर और मंदिरों में चैक में आपको सब एक साथ नजर आएंगे। आज भी मेरे शहर में भाई भाई की कदर करता है। इसकी मिसाल यह है कि एक घर में अगर दो भाई है और एक बेराजगार है तो कमाता खाता भाई अपने दूसरे भाई की पूरी मदद करता है और इसके बच्चों की शादी व सारे सामाजिक दायित्व भी निभाता है। यहाॅं बुजुर्गों का सम्मान होता है, आपको मेरे शहर में बड़े बुजुर्गों की कद्र करते लोग व उनको ‘पगेलागणा’ व ‘राम राम’ करते लोग मिल जाएंगे। शायद यही कारण है कि मेरे शहर में अनाथालयों व वृद्धाश्रमों की संख्या नही ंके बराबर है।
मेरे शहर ने अपने स्वभाव को नहीं छोड़ा है। यहाॅं के इंसानों को इंसान की पहचान है और शायद यही कारण है कि अपनी स्थापना के सवा पाॅंच सौ साल के इतिहास में कभी मेरे शहर में कोई साम्प्रदायिक उन्माद नहीं हुआ है। जिस दिन बाबरी मस्जिद का विवादित ढ़ाॅंचा टूटा था उस दिन पूरे देष में हाहाकार था लेकिन बीकानेर में शहर के मौजीज लोग सड़कों पर थे जिनमें हिन्दू व मुसलमान दोनों थे और एक कंकर भी किसी पर नहीं उछाला किसी ने, ऐसा है मेरा शहर।

बीकानेर में प्रत्येक त्यौंहार साम्प्रदायिक सौहार्द व अपनेपन के साथ मिलकर मनाया जाता है। होली पर यहाॅं के लोग खुल कर मस्ती करते हैं सारा शहर पूरे दिन होली के रंग मे सरोबार रहता है और यहाॅं की होली मुसलमान व हिन्दू या कोई और धर्म के लोग एक साथ मनाते हैं। बीकानेर में दिपावली का त्यौंहार भी हिन्दू मुसलमान दोनों द्वारा मनाया जाता है। बीकानेर के मुसलमान भाईयों की दुकानों पर आपको माॅं लक्ष्मी व भगवान गणेष के चित्र देखने को मिल जाएंगे। बीकानेर के पूर्व महापौर मकसूद अहमद के घर दिपावली की रौनक किसी हिन्दू के घर से कम नहीं रहती। वे अपने सब बच्चों को नए कपड़े व मिठाई दिलाते हैं और इनके बच्चे पटाखे छोड़ कर दिपावली का स्वागत करते है। मेरे से एक बार बातचीत के दौरान मकसूद भाई ने कहा कि दिपावली का समय है सो घर की औरतें साफ सफाई में लगी है, मतलब यह कि यहाॅं सिर्फ हिन्दू ही दिपावली के समय अपने घरों का रंग रोगन कर सफाई नहीं करते बल्कि यहाॅं के मुसलमान भी दिपावली को बड़ी षिद्दत व भाव से मनाते हैै। पुराने बाजार में रंग के पुराने व्यापारी बरकत भाई जी के लड़के से बात करने पर पता चलता है कि वो किसी वैष्णव से कम नहीं है, अपने घर का ही पानी पीते हैं और अपने घर का बना ही खाना खाते है। मेरे शहर के नामचीन मुसलमान व्यापारी हारून मेमन साहब आज भी प्रतिदिन बड़ा गणेष जी के मंदिर जाते है। गणेष जी के मंदिर के पुजारी भी हारून साहब का इंतजार करते हैं। इसी तरह मेरा दोस्त शराफत हनुमान जी का भक्त है और हनुमान जी का बड़ा प्रसाद होने पर वह जरूर आता है और अपनी तरफ से भी प्रसाद में हिस्सेदारी निभाता है। ईद के दिन जब मुसलमान भाई शहर की सबसे बड़ी ईदगाह पर नमाज पढ़ने आते हैं तो उन्हें ईद की मुबारक बाद देने मनोहर जी पहलवान व नू महाराज व नीना भाईजी जैसे लोग तैयार मिलते हैं। यहाॅं ईद के दिन ईद की सेवाईयाॅं खाने अजीत भुट्टा के घर शहर के सब पत्रकारी पहुॅंचते हैं। शहर की इस सबसे बड़ी ईदगाह में जितना समय मुसलमान भाईयों ने नहीं बिताया होगा उससे ज्यादा समय यहाॅं के आस पास रहने वाले हिन्दू भाईयों ने व्यतीत किया है। बीकानेर के दो पीर व हाजी बलवान सैयद साहब के समने से गुजरते वक्त हर व्यक्ति का सिर सजदे होता है। मैं अपने बारे में बताता हूॅं कि मुझे खुद मोहर्रम वाले दिन ताजिये के नीचे से निकाला गया था जब मैं छोटा था मुझे वो दिन आज भी याद है क्योंकि मेरी नानी ने यह मन्नत मांगी थी कि अगर मेरे नाती होता है तो उसे ताजिये के नीचे से निकालूंगी। इसी तरह बीकानेर की सब समाजों की शादियों में ‘मीनू’ चाहे जो कुछ हो पर होगा बिना प्याज लहसुन का। चाहे रूबी की रूखसाना की शादी हो या शराफत की बारात। यहाॅं के सभी जाती के लोगों को पता है कि उनकी शादियों में शहर के पुष्करणा ब्राह्मण भी बड़ी संख्या में शरीक होते है जो प्याज लहसुन नहीं खाते तो यहाॅं की शादियों में प्याज लहसुन का सामान्यतः प्रयोग नहीं किया जाता, ऐसा है मेरा शहर।
मेरे को शायर अजीज साहब की पंक्तियाॅं याद आ रही है कि .........बस एक रात मेरे शहर में गुजार कर तो देख सारा जहर न उतर जाए तो कहना।
इसी तरह लक्ष्मी नारायण रंगा जी की कही पंक्तियों में भी बताया गया है कि
बीकानेर की संस्कृति में सबका साझा सीर
दाउजी मेरे देवता, नौगजा मेरे पीर।

your comments in Unicode mangal font or in english only. Pl. give your email address also

HTML Comment Box is loading comments...
 

Free Web Hosting