छात्र राजनीति जिसने आजादी के महासमर में अपना अस्मरणीय योगदान दिया। देश के प्रत्येक भाग से बड़ी संख्या में युवा छात्र क्रान्तिकारियों ने उक्त स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों में अपनी प्रबल भागीदारी से फिरंगियों के दाॅत खट्टे कर दिये। देश आजाद हो गया। आजादी से पहले छात्र राजनीति जिस लक्ष्य से प्रेरित थी वह बदल गया। जो हो गया देश तथा समाज का नव निर्माण। उसमें भी छात्र राजनीति ने अपनी अहम भूमिका निभाई। देश का सामाजिक रूप बदलता गया उसके साथ छात्र राजनीति का लक्ष्य भी। इसी छात्र राजनीति की कोख से चन्द्रशेखर एवं वी0पी0 सिंह सरीखे प्रधानमंत्री वहीं सुरजीत सिंह बरनाला, नारायण दत्त तिवारी, नीतिश कुमार, लालू प्रसाद यादव जैसे मुख्यमंत्री भी निकले। सीता राम यचूरी, अरूण जेटली, रवि शंकर प्रसाद, सलमान खुर्शीद, अशोक गहलौत, सुशील कुमार मोदी, प्रकाश करात सरीखे राजनेता देने वाली राजनीति अचानक गुण्डे बदमाश बनाने की कार्यशाला के रूप में कैसे प्रसिद्ध हो गई। विचारणींय है !
छात्र राजनीति अपने 100 वर्षाें के इतिहास में शायद ही कभी इतने लाचार दौर से गुजरी है, जैसे की आज है। जिस छात्र राजनीति ने हमेशा देश की दिशा परिवर्तन का कार्य किया आज उसे ही प्रतिबंधित करना चिंतनीय है। वर्ष 1972 के समय जय प्रकाश नारायण का छात्र आन्दोलन सरकार के खतरे के रूप में पैदा हुआ। उस समय हमारे सत्ताधारी वर्ग को लगने लगा यह ताकत कभी भी हमें सड़क पर ला सकती है। अतः तबसे वह वर्ग हमेशा इस प्रयास में लगा रहा कि छात्र वर्ग को दागदार बनाकर रखा जाये। अतः वे हमेशा छात्र राजनीतिज्ञों को आपराधियों के गोत्र में प्रस्तुत करते रहे।
सन् 2003 में कोट्टयम (केरल) के सेण्ट थामस कालेज के एक छात्र नेता सोजन फ्रांसिस ने केरल के उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जिसमें उन्होने विश्वविद्यालय की परीक्षा में शामिल होने की अनुमति माॅगी। उक्त महाविद्यालय के प्रधानाचार्य के अनुसार उनकी उपस्थिति कम थी। अतः वे परीक्षा में बैठने के योग्य नहीं थे। जिस पर सोजन का तर्क था कि वे अपनी छात्र राजनीति के चलते बैठको तथा कार्यक्रमों आदि में जाते हैं एवं वे छात्र संघ की पत्रिका के सम्पादक भी हैं। जिसके चलते उनकी उपस्थिति कम हुई। इसलिये छात्र राजनीति में दखल के चलते वे विद्यालय न आ सके। अतः उन्हें परीक्षा में बैठने की अनुमति दी जाये। केरल उच्च न्यायालय ने उक्त छात्र नेता की याचिका खारिज कर दी। मामला सुप्रीम कोर्ट होते हुये मानव संसाधन विकास मंत्रालय पहॅुॅचा तथा 23 मई 2003 को उक्त मंत्रालय ने 6 सदस्यीय लिंगदोह समिति को गठन किया। जिसने अपनी सिफारिश 23 मई 2006 को उक्त मंत्रालय तथा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रखी। जिसे न्यायालय ने 22 सितम्बर 2006 को मान लिया। जिसके अनुसार कोई भी छात्र 5000 रूपये से अधिक अपने चुनाव में खर्च नहीं करेगा, हाथ से बने बैनर तथा पेास्टर एक निर्धारित स्थल पर ही लगेंगे, 17 से 28 वर्ष तक के युवा ही छात्र संघ का चुनाव लड़ सकेगे जिसकी अपनी कक्षा में उपस्थिति कम से 75 प्रतिशत हो वह छात्र ही चुनाव लड़ सकेगा, छात्र सिर्फ एक बार ही चुनाव लड़ सकेगा वह चाहे जीते या हार,े छात्र को अपना चुनाव लड़ने के लिये कम से कम 50 प्रतिशत अंक लाना अनिवार्य होगा तभी वह चुनाव लड़ सकेगा। उक्त सिफारिश ने छात्र संघ के चुनाव में राजनैतिक दलों के दखल पर भी रोक लगा दी।
लिंगदोह समिति की कुछ बाते तो ठीक है परन्तु कुछ औचित्यहीन। जैसे कक्षा में 75 प्रतिशत उपस्थिति तर्क संगत नहीं प्रतीत होती क्योंकि परीक्षा में शामिल होने के लिये 66.6 तथा चुनाव लड़ने के लिये 75 प्रतिशत उपस्थिति, इसी प्रकार छात्र का एक बार चुनाव लड़ना भी न्याय संगत नहीं लगता, प्रत्याश्ीा के 50 प्रतिशत अंक लाना अनिवार्य विषय भी ठीक नहीं है। क्योंकि छात्र को अगली कक्षा में जाने के लिये इससे काफी कम अंको की आवश्यकता होती है।
यह बात सत्य है कुछ अपराधी तत्वों को इस राजनीति की आड़ में फलने फूलने का मौका मिला लेकिन इसके साथ यह भी सत्य है इस राजनीति ने देश को सैकड़ों गम्भीर राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय राजनैतिक विचारक दिये। जिनके विचारों की चमक हमेशा भारतीय क्षितिज पर बनी रहेगी। छात्र संघों को बुराईयों का केन्द्र बताने वाले, बेवजह कुतर्कों के आधार पर राजनीति की प्राथमिक पाठशाला को गुण्डे बदमाशों का जमघट साबित करने वाले शायद यह भूल गये मौजूदा वक्त में लगभग 200 सांसदों का आपराधिक इतिहास है। यदि हमारे देश के लोक तंत्र के प्रथम स्तम्भ की यह दशा है तो यदि छात्र संघ चुनाव में कुछ अपराधी चुनकर आ भी जाते है तो सम्पूर्ण व्यवस्था को प्रतिबंधित करना कहाॅ का न्याय है।
वर्तमान में लगभग 60 प्रतिशत देश की आबादी युवा है। जो अपने मताधिकार का उपयोग कर देश तथा प्रदेश की सरकारे बनाती हैं। इतनी बड़ी आबादी का वोट सरकारें तय करती है। दूसरी तरफ उनके छात्र संघों के चुनाव लगभग पूरे देश में प्रतिबंधित हैं कहाॅ तक न्यायोचित है। बिहार के लालू प्रसाद यादव इसी छात्र राजनीति की उपज थे उन्होने लगातार 15 वर्षों तक बिहार पर राज किया जिन्होने छात्र संघ चुनाव प्रतिबंधित रखे नीतीश कुमार भी इसी की देन हैं लेकिन इस विषय पर उन्होने भी लालू प्रसाद यादव का समर्थन किया। उत्तर प्रदेश में मायावती को देश तथा प्रदेश के सदनों में तो अपराधी कबूल हैं परन्तु महाविद्यालयांें तथा विश्वविद्यालयों में अपनी आवाज उठाने वाले छात्रों की आवाज उन्हें बर्दाश्त नहीं। वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री वर्ष 2006 में बनी तब से छात्र संघों के चुनाव यहाॅ प्रतिबंधित है। जे0पी0 आन्दोलन का केन्द्र रहा पटना विश्वविद्यालय भी शांत पड़ा है।
वर्तमान में सम्पूर्ण भारतीय राजनीति में बढ़ता परिवारवाद एक चिंता का विषय है। कोई भी राजनैतिक दल उक्त दोष से पूरी तरह मुक्त नहीं है। जिन घरों में पहले से राजनेता हैं उन्हे विरासत में राजनीति प्राप्त हो जाती है। उन्हे अपनी पहचान के लिये संघर्ष नहीं करना पड़ता है। इस स्थित को देखते हुये समाज का आम राजनैतिक व्यक्ति अपने को राजनैतिक गतिविधियों से दूर करने लगता है। उसे लगता है कि अमुख व्यक्ति रक्त संबंधों के आधार पर उस स्थान की पूर्ति करेगो जो खाली होने वाली है। वह जीवन भर कार्यकर्ता का कार्यकर्ता ही रहेगा। किसी समय छात्र राजनीति के सहारे एक बड़ा तबका भारतीय राजनीति में अपनी गरिमामयी उपस्थित बनाये था। जिसके अंश अभी भी दिखाई पड़ते हैं। यदि उक्त छात्र राजनीति को पुनः प्रतिस्थापित नहीं किया तो देश में परिवारवाद की वह बाढ़ आयेगी कि लोक तंत्र की अर्थी उठते देर नहीं लगेगी। देश तथा प्रदेश की राजनीति कुछ परिवारों तक सिमट कर रह जायेगी। समाज, देश तथा प्रदेश में कुछ एक परिवारों का गुलाम बनकर रह जायेगा। कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गाॅधी ने भी उक्त छात्र संघ के चुनाव के पक्ष में हस्यात्मक एवं दिखावटी रवैया अपना रखा है। कौन नहीं जानता है कि उनकी पार्टी के नेतृत्व की केन्द्र में सरकार है। यदि वे चाहे एक दिन में कानून बना चुनाव की व्यवस्था लागू करा सकते हैं। उनका फर्जी छात्र समर्थन भारतीय समाज जान चुका है।
देश के अधिकांश राज्यों के विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में छात्र संघों के चुनाव एक लम्बे अंतराल से नही हो रहे हैं। क्या उक्त चुनाव प्रतिबंधित करने के बाद शिक्षण परिसरों मंे राम राज्य आ गया या उनकी शिक्षण गुणवत्ता मंें कुछ सुधार हुआ। क्या उक्त व्यवस्था समाप्त करने के बाद वहाॅ से भ्रष्टाचार, अराजकता, गुण्डा गर्दी आदि समाप्त हो गई। जिन शिक्षण संस्थानों में पहले शिक्षण श्रेृष्ठता कायम थी वे आज भी हैं तथा जो पहले इस दिशा मंें पंगु थे वे भी आज उसी दशा में है, उनमें कोई सुधार नहीं हुआ। अर्थात छात्र संघ चुनाव से गुण्डा गर्दी, भ्रष्टाचार आदि अनिमितताओं तथा प्रतिकूल गतिविधियों का कोई सरोकार नहीं।
ऐसा लगता है लिंगदोह समिति की आड़ में प्रान्तीय सरकारों ने छात्र राजनीति का दमन करने का मन बना लिया है। उक्त राजनीति की कुछ सिफारिशें अज्ञानता से ओत प्रोत है। जिसके विषय में लिंगदोह समिति खामोश तथा सर्वोच्च न्यायालय मौन है। केन्द्र सरकार भी दम साधे बैठी है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि देश सहित विभिन्न प्रादेशिक सरकारें लिंगदोह समिति के नाम पर छात्र राजनीति को समाप्त करने पर आमादा हैं। प्राकृतिक रूप से निकलने वाले राजनैतिक वर्ग की गर्भनाल यदि सूख गई तो युवा नेतृत्व के नाम पर नेताओं के परिवार, उनकी परिक्रमा करने वाले तथा धनबल के आधार पर विकसित होने वाला युवा नेतृत्व ही नजर आयेगा। लिहाजा छात्र संघों को तत्काल बहाल ही न किया जाये बल्कि इसे कानून बना अनिवार्य भी किया जाये। जिससे देेश की लोकतांत्रिक व्यवस्था कामय रह सके।

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