जनप्रिय होना प्रशासनिक अधिकारियों के कार्य में जितना आवश्यक होता है, उससे कहीं अधिक प्रशासनिक अधिकारियों का शौक होता है, परंतु जनप्रिय होने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि जनता की भलाई के कार्यों में ही लिप्त रहा जाये. जनप्रिय होना तो एक कला है और इस होड़ में प्रायः ’कलाकार’ किस्म के अधिकारी जनहित में काम करने वाले अधिकारियों से बाज़ी मार ले जाते हैं, उदाहरणार्थ- पुलिस के एक अधिकारी जब भी किसी नये जनपद में नियुक्त होते थे तो चार्ज लेने के दूसरे-तीसरे दिन ही चालू किस्म के पत्रकारों को साथ लेकर शराब के अड्डों और वेश्याओं की कोठियों पर दबिश डाल देते थे, जिससे अगले दिन उनकी वाहवाही से अखबार रंग जाते थे. इससे वह जनपद में आते-आते ही जनप्रिय हो जाते थे और शराब बेचने वालों तथा वेश्याओं में उनका इतना भय व्याप्त हो जाता था कि भविष्य में उनके और उन पत्रकारों के सुरा-सुंदरी के शौक बिना रोक-टोक पूरे होते रहते थे. इससे उनकी मानसिक, शारीरिक तथा आर्थिक संतुष्टि तो होती ही थी, पत्रकारों के खुले दिल से सहयोग के फलस्वरूप अपने पद पर जमें रहने का चांस भी बढ़ जाता था.

मेरे ज़माने में अनेक ऐसे सिरफिरे अधिकारी भी होते थे जो सच्ची जनसेवा का दुरूह मार्ग अपनाकर जनप्रिय बनने का प्रयत्न करते थे. लोगों का कहना है कि आजकल ज़माना बदल गया है और पद पर जमें रहने का भरोसेमंद सूत्र जनप्रिय होने के बजाय नेताप्रिय एवं कमाऊ-पूत होना हो गया है, और आजकल मलाईदार जनपदीय पदों यथा डी. एम., एस. पी., सी. एम. ओ. आदि पर नियुक्त अधिकारियों के फ़ंडे इस विषय में पूर्णतः क्लिअर हैं. मैं इस विषय में पुराने खयालातों वाला प्राणी होने के कारण अभी भी इन ग़लतफ़हमियों से नहीं उबर पाया हूं कि जनप्रिय अधिकारी अधिक ईमानदार एवं निर्बलों की समस्याओं के प्रति सम्वेदनशील होते हैं और आज भी अधिकांश अधिकारी जनप्रिय बनने का प्रयत्न अवश्य करते होंगे.

कहावत है कि चोर चोरी से चला जाये, पर हेरा फेरी से नहीं जाता है- सो मैं सेवानिवृति के नौ वर्ष बाद भी अपने जनपद के प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यों के विषय में पूछताछ के शौक़ से अपने को निवृत नहीं कर पाया हूं. मैं जब अपने गांव जाता हूं तो प्रशासन के सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों से यह अवश्य पूछता हूं कि आजकल दरोगा, एस. पी., डी, एम. में कौन कौन जनप्रिय है और कौन कौन खुर्राट?. इस बार मेरे गांव जाने पर एक वकील साहब मुझसे मिलने आये, तो मैने प्रश्न कर दिया:

“और कहिये वकील साहब, आजकल अपने ज़िले का क्या हाल है?”

“और तो कोई नई बात नहीं है- हां, आजकल अपने ज़िले के नये डी. एम. ज़रूर बहुत जनप्रिय हैं. हर कोई उनका गुणगान कर रहा है.”, वकील साहब हल्का सा मुस्कराते हुए बोले.

सम्भवतः आप को ग्यात होगा कि हर दल के राजनैतिकों को शासकीय धन-सम्पत्ति की सुविधासहित लूटपाट एवं अपने राजनैतिक दल को सत्ता में बनाये रखने के हथकंडे अपनाने हेतु हर जनपद में एक सर्वशक्तिसम्पन्न ’मिनीकिंग’ का रखना अधिक कमाऊ एवं टिकाऊ लगता है. अतः शासन ने डी. एम. के हाथ में अन्ग्रेज़ी ज़माने से भी अधिक शक्तियों का केंद्रीकरण कर दिया है. डी. एम. यानी ज़िलाधीश अन्य विभागों के अधिकारियों की भांति कोई जनसेवक नहीं होता है- वरन उसी प्रकार का शासन का ’चमचा’ होता है जैसे मुग़लकाल में ज़िलेदार, सूबेदार आदि हुआ करते थे. वस्तुस्थिति यह है कि डी. एम. के सेवासम्वर्ग के आई. ए. एस./पी. सी. एस. अधिकारियों का सचिवालय पर भी एकछत्र राज्य होने के कारण और उनके द्वारा अपने सम्वर्ग के अधिकारियों के ग़लत-सही कार्यों को डंके की चोट पर संरक्षण देने के कारण डी. एम. पुराने ज़माने के ज़िलेदारों व सूबेदारों से कहीं अधिक निर्भीक होकर स्वच्छंद आचरण करता है. परंतु जिस प्रकार हर कालिमापूर्ण रात्रि में कहीं न कहीं एक प्रकाश-किरण भी होती ही है, उसी भांति इस व्यवस्था में भी एक गुण है कि यदि अच्छा डी. एम. आ जाये तो ज़िले में बहुत कुछ सुधार कर सकता है और भृष्टाचार को काफ़ी हद तक रोक सकता है- यद्यपि भृष्ट डी. एम. के आने पर किसी भी विभाग के किसी कर्मी को सत्यनिष्ट रह पाना अत्यंत कठिन हो जाता हैं. अतः जनप्रिय डी. एम. के नियुक्त होने की बात सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई और मैने अपनी प्रसन्नता प्रकट कर कहा,

“तब तो ज़रूरतमंद लोगों के काम बड़ी आसानी से निबट रहे होंगे.”

वकील साहब अपने मुखमंडल पर स्मित लाकर परंतु सूखे मन से बोले,

“हां, काम तो पहले की अपेक्षा बड़ी आसानी से निबट रहे हैं.”

मुझे वकील साहब के मुखमंडल की स्मित एवं बात कहने के भाव में कुछ रहस्य सा लगा, अतः मैने पूछा,

“अरे यार! असली मतलब क्या है तुम्हारा?”

वकील साहब के मुख पर अब स्पष्ट मुस्कराहट थी,

“नये डी. एम. साहब बड़े स्पष्टवादी हैं. उन्होंने अपने काम कराने के विषय में जनसाधारण के मन में रहने वाले समस्त कंफ़्यूजन दूर कर दिये है. इससे अमीर जनता, सत्ताधारी नेता, अपराधी-माफ़िआ, वकील-दलाल आदि सभी खुश हैं.”

मैने अपनी पूरी सेवाकाल में पूर्ण निष्ठा से प्रयत्न करने के बावजूद जनता के मानस के साधारण से कंफ़्यूज़न भी दूर नहीं कर पाये थे- जैसे मैं कभी किसी को यह आश्वस्त नहीं कर पाया था कि बिना पैसा दिये भी कोई सिपाही बन सकता है. सिपाही पद पर भर्ती होने के लिये मेरे पास आने वाला मेरा निकटस्थ सम्बंधी भी आश्वस्त नहीं हो पाता था क्योंकि मैं पैसे लेने से कतरा जाता था. अतः मुझे यह जानकर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई कि डी. एम. साहब ने जनसाधारण के कन्फ़्यूजन दूर कर दिये हैं. मैने उन डी. एम. साहब के इस फ़ार्मूले को जानने के लिये वकील साहब से बात स्पष्ट करने को कहा, तो वकील साहब हंसकर बोले,

“डी. एम. साहब ने हर काम के रेट निर्धारित कर दिये हैं और रेट-लिस्ट को अपने स्टेनो बाबू के पास रखवा दिया है. यह रेट-लिस्ट एल. आर. पी. /लोएस्ट रेट पौसिबिल/ के नाम से विख्यात हो गई है. अब किसी व्यक्क्ति को अपने काम हेतु घूस का रेट ग्यात करने के लिये कलेक्टरेट के चक्कर नहीं लगाने पड़ते हैं, और न चपरासियों और बाबुओं को चुपचाप पान खिलाने, चाय पिलाने और उनकी हथेली गर्म करने की आवश्यकता होती है. सीधे स्टेनो बाबू से सम्पर्क कर रेट-लिस्ट का अवलोकन कर उसके अनुसार पैसे का प्रबंध करना पड़ता है. हां, यदि द्रुतगति से कार्यवाही की आवश्यकता हो, तो आप की गरज़ के समानुपातिक विशेष रेट्स जानने के लिये डी. एम. साहब से सम्पर्क करना पड़ता है- जिसका प्रबंध उनका स्टेनो द्रुतगति से कर देता है. इस जन-सुविधा के अनगिनत लाभ दृष्टिगोचर हुए हैं- इससे काम कराने वालों को अनावश्यक भागदौड़ एवं समय की बरबादी से राहत मिली है, निर्धारित राशि जमा हो जाते ही काम का निस्तारण हो जाने से कार्यों के निस्तारण में गति आ गई है. इस जनपद के समस्त ऐसे व्यक्ति, जो भारत की वर्तमान व्यवस्था में भारतीय नागरिक कहलाने के हकदार हैं, का द्रुतगति से विकास हो रहा है और वे डी. एम. साहब के मुरीद हो कर उनकी जनप्रियता के डंके पीट रहे हैं.”

 

HTML Comment Box is loading comments...
 

Free Web Hosting