घोर
आश्चर्य
!
हिन्दी
भाषा,
जिसे
भारत
का
सर्वोच्च
न्यायालय
ही
स्वीकार
नहीं
करता
है,
क्यों
?
क्या
इसी
कारण
हिन्दी
लेखक
एवं
साहित्यकार
आज
भी
गरीबी
की
रेखा
के
आस-पास
ही
निवास
कर
रहे
हैं
?
लेखक
:
जी.
एस.
जौहर
डा० श्रीमती तारा सिंह का लेख ÷हम और हमारी हिन्दी' अत्यन्त सामयिक होने के
साथ-साथ चेतावनी पूर्ण भी है। आखिर क्यों ? आम बोल-चाल के समय अधिकांश लोग अपनी
मात्र भाषा को तिरस्कृत करके अंग्रेजी बोलने में गर्व का अनुभव करते हैं ! भारत में
व्याप्त यह स्थिति अटपटी होने के साथ-साथ अपनी संस्कृति का तिरस्कार करती हुई
प्रतीत होती है। सर्वाधिक घोर आश्चर्य की बात तब सामने आती है, जब देश का सर्वोच्च
न्यायालय ही हिन्दी में लिखी हुई न तो कोई याचिका ही स्वीकार करता है और न ही
हिन्दी भाषा में कोई आदेश ही पारित करता है । केवल यही नहीं, अंग्रेजी भाषा में
प्रस्तुत की गयी याचिका में भी अगर कोई संलग्नक भी हिन्दी भाषा का है तो यह याचिका
भी सुनवाई के लिए तब तक जज महोदय के सामने प्रस्तुत नहीं की जाती जब तक कि उस
हिन्दी के संलग्नक का सम्पूर्ण अनुवाद प्रमाणित रूप से शुद्ध अंग्रेजी भाषा में
नहीं करवा लिया जाता । इस प्रक्रिया के अन्तर्गत याचिका हफ्तों से लेकर महीनों तक
लटकी पडी रह जाती है । हिन्दी से अंग्रेजी अनुवाद के लिए कुछ फीस अलग से भी देनी
होती है । हालांकि यह फीस अधिक नहीं होती लेकिन आश्चर्य यह सोचकर होता है कि क्या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के जजों को हिन्दी नहीं आती है अथवा यह भाषा उन्हें किसी
दूसरे संसार की लगती है । कौन सा ऐसा देश संसार में है जहां के न्यायालय अपने देश
की भाषा को अस्वीकार करके किसी विदेषी भाषा में लिखी गयी याचिका ही स्वीकारते हों ?
वर्तमान में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में कुल ३० जजों में २६ हिन्दी भाषी जज हैं
। केवल ४ जज ऐसे हैं जो दक्षिण भारतीय हैं ; इनके नाम सर्वश्री के.जी बालाकृष्णन
(मुख्य न्यायाधीश), आर. रविन्द्रन, बी. सुदर्शन रेड्डी और पी. सदाशिवम् हैं, और यह
माना जा सकता है कि उन्हें हिन्दी भाषा का ज्ञान नहीं है । लेकिन जब २६ जज हिन्दी
भाषी हों तो हिन्दी में लिखी गयी याचिका क्यों नहीं स्वीकार की जा सकती ? यह सभी २६
जज बचपन से लेकर सर्वोच्च न्यायालय की कुर्सी तक पहुंचने में निश्चय ही हिन्दी में
ही काम करते रहे होंगें, तो आज वे हिन्दी की याचिका क्यों नहीं पढ. सकते ? अगर
याचिका किसी दूसरी राज्य भाषा में हो तो वे अस्वीकार की जा सकती है, परन्तु राष्ट्र
भाषा में लिखी गयी याचिका स्वीकार न हो तो इससे अधिक दुर्भाग्य भारत राष्ट्र के लिए
हो ही नहीं सकता । भारतवर्ष को अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुए ६० वर्ष से अधिक का
समय व्यतीत हो चुका है फिर भी किसी राष्ट्रपति ने, किसी प्रधानमंत्री ने, किसी
कानून मंत्री ने इस बात पर आपत्ति क्यों नहीं की कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय देश
की सर्वोच्च भाषा हिन्दी को सहर्ष स्वीकार करे ! प्रान्तीय भाषाओं में लिखी गयी
याचिकाओं को समझने और निर्णय देने में दिक्कत हो सकती है, यह बात तो मानी जा सकती
है, लेकिन राष्ट्र भाषा हिन्दी में प्रस्तुत याचिका स्वीकार न की जाय यह बात किसी
भी राष्ट्र प्रेमी के लिए स्वीकार करना संभव नहीं है। आज अगर देश के सभी सांसद मिल
करके हिन्दी भाषा के समर्थन में आवाज उठायें तो निश्चय ही सर्वोच्च न्यायालय हिन्दी
की याचिकाएं स्वीकार करने में सहमत हो सकता है । इस राष्ट्रीय धर्म के परिपालन में
किसी भी सांसद को पीछे नहीं रहना चाहिए ।
हिन्दी साहित्यकारों की आर्थिक स्थिति : पूरे भारतवर्ष के इतिहास को अगर खंगाल
डालें तो शायद ही कोई ऐसा साहित्यकार मिल पायेगा जिसके पास करोडों रूपयों के बैंक
बैलेंस हों, आधुनिक कारों की श्रंखला हो, अथवा विशालकाय कोठियॉ या करोडों की लागत
वाले फ्लैट हों । सारा जीवन देश प्रेम एवं देश की भाषा के साहित्य के सृजन में
अपने आप को खपा देने वाले साहित्यकारों ने कुल कितना धन अर्जित किया, यह बात कोई
जान पाये तो बतलाने में निश्चय ही शर्मसार हो जायेगा । महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी
निराला अपने जीवनकाल में सुख सुविधा से कभी भी नहीं रह पाये । जीवन के अन्तिम काल
में वे पैसे-पैसे को तरसते रहे । पैसे के अभाव में वे अपना इलाज तक नहीं करवा पाये
। उनके हाथों एवं पैरों की सूजन व अन्य लक्षण स्पष्ट संकेत दे रहे थे कि उनके
गुर्दे फेल होते जा रहे हैं, परन्तु इलाज के अभाव में वे चल बसे । इसी प्रकार अगर
आज की स्थिति देखें तो और भी रोना आ जाता है । बीमारी और आर्थिक तंगी से परेषान
प्रख्यात साहित्यकार अमरकान्त को उनके इलाज के लिए अप्रैल २००८ में अगर एक ट्र्स्ट
द्वारा २५००० रूपयों की सहायता न दी जाती तो उनकी शारीरिक स्थिति अत्यन्त बिगड चुकी
होती । भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यकारी निदेशक श्री रविन्द्र कालिया के अनुसार वरिष्ठ
साहित्यकार अमरकान्त को साहू जैन ट्र्स्ट की ओर से २५०००/- रूपये का चेक दिया गया
था, लेकिन साहित्य जगत ने अमरकान्त जैसे लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार को मात्र २५०००/-
रूपये की मामूली राशि दिये जाने पर अपना रोष एवं असंतोष जाहिर किया । अमरकान्त के
पारिवारिकजनों ने बताया है कि उनके एक नये उपन्यास को छापकर और उसकी रॉयल्टी में
समायोजित करने की शर्त पर कई प्रकाशक उनकी सहायता करने को तैयार हो गये हैं । पिछले
दिनों पारिवारिकजनों ने सरकार से साहित्यकार अमरकान्त को पेंशन और आर्थिक सहायता
देने की मांग की थी परन्तु सरकार की ओर से कोई उत्साहजनक उत्तर अभी तक नहीं मिला है
। अस्सी वर्षीय अमरकान्त हिन्दी के शीर्षस्थ लेखकों में से एक हैं । कथा साहित्य
में उनका योगदान महत्वपूर्ण हीं नहीं बल्कि ऐतिहासिक भी है । उन्हें हिन्दी की नई
कहानियों के प्रणेताओं में माना जाता है । दस उपन्यास, १२ कथा संग्रह के अलावा बाल
साहित्य की अनेकों कृतियां उन्होंने देश को दी हैं । देश-विदेश के अनेकों सम्मान
एवं अलंकरण भी उन्हें मिल चुके हैं । साहित्य अकादमी भी उन्हें पुरस्कृत कर चुकी है
। हाल ही में अमरकान्त ने पत्रकारों को सम्बोधित करते हुए एक मार्मिक पत्र लिखा है,
जिसके प्रत्येक शब्द से उनकी व्यथा और अकेलापन प्रतिध्वनित होता है । घोर साहित्य
लेखन के बाद भी घनघोर आर्थिक संकट उनके सामने मुंह बाये खडा है । यह विडम्बना ही है
कि इतने प्रतिभाशाली लेखक को अपनी विपन्नता इस प्रकार पत्रकारों के समक्ष बयान करने
की आवश्यकता महसूस हुई है । हालांकि मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें कुछ आर्थिक सहायता
देने की घोषणा अवश्य की है । एक हिन्दी लेखक राजेन्द्र राव ने अपनी हाल मे की गयी
टिप्पणी में लिखा है कि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि अमरकान्त ने अर्थोपार्जन किया ही
नहीं । उनकी पुस्तकों के अनेक संस्करण छपते रहे हैं और उनकी बहुत सी रचनाएं कई
विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों मे भी सम्मिलित हैं, लेकिन उन्हें इतना प्रतिदान
नहीं मिल पाया कि वे ढंग का एक अपना घर ही बनवा पाते । अपनी पत्नी की बीमारी के
उपरान्त अमरकान्त अपनी स्वयं की बीमारी से जूझ रहे है । उनका चलना-फिरना,
उठना-बैठना मुश्किल हो चुका है फिर भी दो उपन्यासों के लिए वे काम कर रहे हैं ।
ऐसा क्यों होता है कि जब कोई राजनेता बीमार होता है तो उसकी चिकित्सा की व्यवस्था
सरकारी खर्च पर देश या विदेश में तुरन्त कर दी जाती है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर
सम्मानित और अलंकृत लेखक या कवि अर्थाभाव में समुचित उपचार से ही वंचित रह जाते है
! ऐसा क्यों ? एक पूर्व प्रधानमंत्री श्री वी.पी. सिंह जिनके गुर्दे वर्षों पहले
फेल हो चुके हैं और वे डायलिसिस के सहारे जीवित हैं, उनकी बीमारी पर करोडों रूपयों
का खर्च सरकार वहन करती आ रही है । लेकिन अमरकान्त जैसे साहित्यकार को बमुश्किल
२५०००/- रूपये की सहायता आज तक मिल पाई है, वह भी एक एन. जी. ओ. द्वारा । अगर भारत
को विकसित राष्ट्रों की पांत में शामिल होना है तो उसे साहित्यकारों को आर्थिक
दुर्दशा से निकालने के लिए कटिबद्ध होना ही होगा ।
हिन्दी लेखक राजेन्द्र राव ने भी अपने एक लेख ÷कष्टमय कलमकार' के अन्तर्गत टिप्पणी
करते हुए लिखा है कि विगत ६० वर्च्चों में राजनीतिक नेताओं ने जनता को यह कुपाठ
पढाया है जैसे कि भारत राष्ट्र का निर्माण केवल राजनीतिज्ञ ही करते हैं, या यह कि
देश की आजादी केवल राजनेताओं के त्याग, बलिदान, और संघर्ष के कारण ही मिली थी ।
लेखक ने अपने लेख में आगे लिखा है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वैज्ञानिक, शिल्पकार,
साहित्यकार, शिक्षक और किसान इत्यादि की भूमिकाएं भारत में गौण समझी जाती हैं । कुछ
गिने-चुने लोगों को छोड दें तो आम भारतीय लेखक सामाजिक उपेक्षा और प्रकाशकों के
शोषण को अपनी नियति मान चुका है । अगर आजादी (बंटवारे) से पहले मुंषी प्रेमचन्द
जैसा युगप्रवर्तक कलमकार अभाव की आंच में तपता रहा था तो स्वतंत्र भारत ने महाकवि
निराला को फटेहाली में ÷न दैन्यं न पलायनम्' को चरितार्थ करते देखा है । इसी तरह
कुछ वर्षों पहले शैलेश मटियानी जैसे उच्च कद के लेखक को जिन जीवन परिस्थितियों से
गुजरना पडा उन्हें देखते हुए न जाने कितने भावी लेखकों का हिन्दी साहित्य से मोह ही
भंग हो गया होगा । त्रिलोचन जी भी उम्र के आखिरी दौर में इसी सामाजिक उपेक्षा एवं
उदासीनता का अनुभव करते हुए संसार से विदा हो गये ।
लेखक राजेन्द्र राव के अनुसार हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में साहित्यकारी को ही
जीवन भर अपनाये रखने का तात्पर्य बृद्धावस्था में अपनी दुर्गति को निमंत्रण देने के
बराबर है । जब तक लेखक की कलम चलती रहती है, दो जून की रोटी का जुगाड होता रहता है
। लेखक की प्रतिभा और लोकप्रियता को उसके प्रकाशक अथवा परिजन ही भुनाते रहते हैं ।
लेखक के हाथ में उतनी ही रकम आती है जिससे खींचतान कर जीवनयापन मात्र हो सके । देश
के सारे नागरिकों को यह समझना होगा कि राष्ट्र के निर्माण में जितना योगदान
राजनेताओं, वैज्ञानिकों, और सैनिकों का होता है, उतना ही योगदान लेखकों एवं कवियों
का भी होता है ।
यह बात भी समझ से बिल्कुल परे है कि जीवनभर साहित्य सृजन करने वाला साहित्यकार या
तो गरीबी में जीवन बिताता है अथवा बहुत हुआ तो मध्यमवर्गीय हालात में जी लेता है ।
इसके विपरीत क्रिकेट टीमों के छोटे-छोटे खिलाडी कुछ घण्टों में आधा सैकडा या एक
सैकडा रन अगर सौभाग्य से बनाने में सफल हो गये तो लाखों रूप्यों की बौछार कर दी
जाती है । वर्ष १९८३ में क्रिकेट कप जीतने वाले प्रत्येक खिलाडी को वर्ष २००८ में
२५-२५ लाख रूपयों की धनराशि सरकार इस तरह दे रही है मानों भारत देश द्वारा अर्जित
सारा गौरव इन्हीं क्रिकेट खिलाडियों द्वारा ही अर्जित किया गया है । क्यो नहीं
भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के समकक्ष यानी करोडपति एक राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य
संवर्द्धन संस्थान की स्थापना की जाती जिसके द्वारा वरिष्ठ एवं नये साहित्यकारों को
उनके द्वारा रचित साहित्य के मूल्यांकन के अनुसार लाखों अथवा हजारों की धनराशियां
तत्काल प्रदान कर दी जायें ? आज वर्तमान स्थिति में क्रिकेट खिलाडियों तथा
लटके-झटके करने वाले फिल्म कलाकारों की तुलना में बडे से बडा हिन्दी साहित्यकार
बेहद गरीब नजर आता है । यह स्थिति अत्यन्त दर्दनाक एवं असहनीय है ।
भारत सरकार भी हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकारों का परिचय नई पीढी से कराने में पूरी
तरह उदासीन एवं विफल साबित हुई है । डाक टिकटों को ही अगर लिया जाये तो देखने को
मिलेगा कि वर्च्चों से एक रूपये की डाक टिकट पर महात्मा गांधी एवं सुभाचन्द्र बोस
का चित्र छपता चला आ रहा है । ऐसा कौन सा नागरिक है जो इन दो विभूतियों से परिचित
नहीं है ? अब इन विभूतियों के स्थान पर अब पुराने हिन्दी साहित्यकारों के चित्र एक
रूपये से लेकर १५ रूपये के डाक टिकट पर प्रतिवर्ष क्रमबद्ध तरीके से छापे जाने
चाहिए ताकि वर्तमान पीढी को भी यह पता चले कि उनके देश में ऐसे-ऐसे महान साहित्यकार
हो चुके हैं जिन्होंने भारत राष्ट्र को गौरवान्वित किया है । हिन्दी साहित्य के
संवर्द्धन का इससे सफल प्रयोग हो ही नहीं सकता । फिर भी राष्ट्र भाषा हिन्दी को
उसका सम्पूर्ण गौरव तब तक नहीं प्राप्त हो सकता है जब तक देश का सर्वोच्च न्यायालय
हिन्दी की याचिकाओं को स्वीकार करने के लिए स्वयं वादकारियों का आह्वान नहीं करता
।