लगभग सभी धर्मों के ग्यानी मुनियों का मृत्यु के परिपेक्ष में एक सम विचार है ।
आत्मा का अग्यातवास पर जाना मृत्यु है ,और क्षणिक मात्र, जीवनवास है । मिटता शरीर
है, आत्मा नहीं मिटती है । वह तो जिंदगी के उठा-पटक से थककर आराम करने के लिए, उस
चैतन्य जगत में चली जाती है, जहाँ पिछले विकास और भावी आवश्यकताओं के अनुसार
प्रकृति की वैध सामग्री में से उसके लिए मन,प्राण और शरीर का पुन: निर्माण किया
जाता है । शास्त्र कहता है, ’मनुष्य के अंदर चेतना के बहुत से स्तर हैं और हर स्तर
का अपना जीवन होता है । जब तक शरीर रहता है, वे सभी रहते हैं । सबों की सत्ता एक
होती है । लेकिन कुछ सत्ताएँ भिन्न –भिन्न स्तरों पर होती हैं , जिसे हम क्षणिक
सत्ता कहते हैं । इसके अलावा भी कुछ मध्यस्थ सत्ताएँ होती हैं, वे हैं—- इच्छा
सत्ता और दूसरा आवेग सत्ता, जो प्राणिक सत्ता पर अपना जोर डालते रहते हैं । जब
मनुष्य शरीर छोड़ने लगता है, तब ये सत्ताएँ बिखरने लगती हैं । लेकिन योगी,पुरुष योग
द्वारा ,अपनी सत्ताओं को भागवत केन्द्र के चारो ओर इकट्ठा कर सभी सत्ताओं को एक साथ
बाँधने में सफ़ल रहते हैं; यूँ कहिये, वे सभी सत्ताओं को अंतिम साँस तक एक साथ बाँधे
रखते हैं । इससे उनके देहावसान के समय,ये सभी सत्ताएँ बिखर नहीं पातीं बल्कि सभी
अपने-अपने क्षेत्र में जाकर मिल जाती हैं । स्वतंत्र रूप से सभी सताएँ अपनी-अपनी
पूर्ति के लिए दौड़ नहीं लगा पाती हैं । लेकिन जो इन्हें एक साथ बाँध नहीं पाते,
उनकी प्राण सत्ता अपने आप को अलग चरितार्थ करने में लगी रहती है । जैसे किसी कंजूस
की आत्मा मरते वक्त भी धन से चिपकी रहती है । वह सोचता है, मेरे बाद मेरे धन का
क्या होगा ? कोई हड़प तो नहीं लेगा ? इसलिए रोग-शोक रहित होकर भी वह जीवन के अंतिम
साँस तक दुखी जीता है । लेकिन गुणी मुनियों के साथ ऐसा नहीं होता । उनकी आत्मा को
भौतिक सत्ता नहीं सताती, इसलिए मृत्यु तक सुखी जीते हैं ।
हमारा शास्त्र कहता है— रूप – सत्ता,आदमी के मरणोपरांत भी रूप की आत्मा बन जिंदी
रहती है । केवल जिंदी ही नहीं रहती,सचेतन भी होती है–जो कि आठ से तेरह दिनों तक
रहती है ,फ़िर विलीन हो जाती है । कुछ लोगों का मानना है, मरणोपरांत मनुज विधाता के
अंतिम निर्णय तक सुप्तावस्था में पड़ा रहता है । उसके बाद ,उसे स्वर्ग या नरक में
भेज दिया जाता है । कुछ लोगों का यह मानना है कि मृत्यु के तुरंत बाद व्यक्ति को
शाश्वत गंतव्य स्थान पर भेज दिया जाता है । वहाँ उनकी आत्मा पुनर्जीवन की प्रतीक्षा
में स्थायी रूप से तब तक रहती है, जब तक वह पुन: शरीर नहीं पा जाती । जीसू क्राइस्ट
के अनुयायियों का मानना है, शरीर को छोड़कर ईश्वर के घर जाने की प्रक्रिया मृत्यु है
। इससे यह पता चलता है कि क्राइस्ट के अनुयायियों के अनुसार आदमी मृत्यु के उपरांत
ही क्राइस्ट के पास चला जाता है ।
अलग-अलग अनुयायियों के अलग-अलग मत के बावजूद , सब का निचोड़ एक लगता है । वह यह है
कि मिटता तन है, तन के भीतर रहनेवाली आत्मा नहीं मिटती ; वह अमर है । आत्मा को
अग्नि जला नहीं पाती,पानी भिंगो नहीं पाता, बंधन बाँध नहीं पाता; वह स्वतंत्र है ।
जैसा कि गीता में भागवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है —-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत: ॥
कई बार देखा गया है, कुछ बुजुर्ग अपने मृत्यु से सम्बन्धित कुछ ऐसी बाते करते हैं,
जैसे उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास हो गया हो । लेकिन घर के लोग यह सोचकर कि बूढ़े हो
चुके हैं । दिमागी तौर पर बीमार हैं, इसी वजह से ये ऐसी बेबुनियाद की बातें करते
हैं । लोग उनकी बातों को टाल जाते हैं, लेकिन जब उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है
और उनके द्वारा कही गई बातें सत्य होती हैं । तब लोग चर्चा करते हैं, इनकी मृत्यु
होगी, इसका पूर्वाभास इन्हें पहले से था । लेकिन इसको सुनने वाले इसे सत्य नहीं
मानते । वे तो यही सोचते हैं, अपने परिजन को महिमामंडित करने के लिए वे ऐसा बोल रहे
हैं जिससे कि दुनिया, इनके रिस्तेदारों को गुणी मुनियों में गिने ।
इस तरह की एक घटना का जिक्र, मैं यहाँ कर रही हूँ । जब मेरे पिता, कैंसर रोग से
पीड़ित हो शैय्यावान थे , तब की बात है । एक दिन उन्होंने, मुझे बुलाकर कहा,’ आज
आश्विन की पूर्णिमा है । कार्तिक के अमावस्या से पहले मैं चला जाऊँगा । तुम एक काम
करो, कार्तिक महीने में गाँव के लोग खेतीबारी में व्यस्त हो जायेंगे । मुझको श्मशान
तक ले जाने में तुमलोगों को बड़ी मुश्किल आयेगी । तुम आज से चार-पाँच दिन बाद, शहर
जाकर , कफ़न,धूप-दीप वगैरह ले आओ । अकेली जान उस समय क्या-क्या करोगी ? मैं पिताजी
के मुँह पर हाथ रखते हुए कही ,’ पिताजी , आपको कुछ नहीं होगा ; आप ठीक हो जायेंगे ।
आप क्यों आलतू-फ़ालतू की बात अपने मन में लाते हैं ।’ पिताजी हँसते हुए कहे —- तुम
मेरे जाने की बात सोचकर, डर गई । अरे पगली, जो आया है, उसे जाना है । इसके लिए मन
इतना दुखी मत करो । लेकिन हुआ वही, जो उन्होंने कहा था । पिताजी अमावस्या आने के
चार दिन पहले अचानक हम सबको छोड़कर चले गये ।
ओशो इंटरनेशन फ़ाउन्डेशन का मन्तव्य है कि जब तक किसी व्यक्ति में , मृत्यु में
उतरने का साहस नहीं होता है , तो व्यक्ति जिंदा रहकर भी मृत्यु में भटकता रहता है ।
मृत्यु को सामने खड़ा पाकर भी सोचता, मृत्यु है ही नहीं, तो मेरी मृत्यु होगी कैसे ?
ऐसा विरोध लोग अग्यानतावश करते हैं । जो अध्यात्मवाद को पा चुके, वे इस तरह की
बातें नहीं सोचते । इस तरह मृत्यु के लिए भिन्न- भिन्न धर्मों का अलग-अलग मन्तव्य
है । लेकिन सौ बात की एक बात ; मृत्यु ,व्यक्ति की होती है; आत्मा की नहीं,आत्मा
अमर है । भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से युद्ध के मैदान में, अपनों के मारे जाने से
चिंतित देख अर्जुन से कहा है —–
अछेद्योsयमचिन्तयोsयमविकार्योsयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥
अर्थात यह आत्मा अव्यक्त, अचिंत्य और विकाररहित कही जाती है । इससे हे अर्जुन ! इस
आत्मा को उपयुक्त प्रकार से जानकर तेरा शोक करना उचित नहीं है ।