खो रहा है बचपन
ये दौलत भी ले लो
ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वे कागज की कच्च्ती वो बारिश का पानी।
किसी गीतकार द्वारा लिखी गई ये पंक्तियाँ बचपन की महत्ता को दर्च्चाती हैं। बचपन एक
ऐसी अवस्था होती है, जहाँ जाति- धर्म- क्षेत्र कोई मायने नहीं रखते। बच्चे ही
राष्ट्र की आत्मा हैं और इन्हीं पर अतीत को सहेज कर रखने की जिम्मेदारी भी है।
बच्चों में ही राष्ट्र का वर्तमान रूख करवटें लेता है तो इन्हीं में भविष्य के
अदृश्य बीज बोकर राष्ट्र को पल्लवित-पुष्पित किया जा सकता है।
दुर्भाग्यवश अपने देश में इन्हीं बच्चों के शोषण की घटनाएं नित्य-प्रतिदिन की बात
हो गयी हैं और इसे हम नंगी आंखों से देखते हुए भी झुठलाना चाहते हैं- फिर चाहे वह
निठारी कांड हो, स्कूलों में अध्यापकों द्वारा बच्चों को मारना-पीटना हो, बच्चियों
का यौन शोषण हो या अनुसूचित जाति व जनजाति से जुड़े बच्चों का स्कूल में जातिगत शोषण
हो। हाल ही में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ओर से नई दिल्ली में आयोजित
प्रतियोगिता के दौरान कई बच्चों ने बच्चों को पकड़ने वाले दैत्य, बच्चे खाने वाली
चुड़ैल और बच्चे चुराने वाली औरत इत्यादि को अपने कार्टून एवं पेन्ंिटंग्स का आधार
बनाया। यह दर्शाता है कि बच्चों के मनोमस्तिष्क पर किस प्रकार उनके साथ हुये
दुर्व्यवहार दर्ज हैं, और उन्हें भय में खौफनाक यादों के साथ जीने को मजबूर कर रहे
हैं।
यहाँ सवाल सिर्फ बाहरी व्यक्तियों द्वारा बच्चों के शोषण का नहीं है बल्कि घरेलू
रिश्तेदारों द्वारा भी बच्चों का खुलेआम शोषण किया जाता है। हाल ही में केन्द्र
सरकार की ओर से बाल शोषण पर कराये गये प्रथम राष्ट्रीय अध्ययन पर गौर करें तो ५३.२२
प्रतिशत बच्चों को एक या उससे ज्यादा बार यौन शोषण का शिकार होना पड़ा, जिनमें ५३
प्रतिशत लड़के और ४७ प्रतिशत लड़कियाँ हैं। २२ प्रतिशत बच्चों ने अपने साथ गम्भीर
किस्म और ५१ प्रतिशत ने दूसरे तरह के यौन शोषण की बात स्वीकारी तो ६ प्रतिशत को
जबरदस्ती यौनाचार के लिये मारा-पीटा भी गया। सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह रहा कि यौन
शोषण करने वालों में ५० प्रतिशत नजदीकी रिश्तेदार या मित्र थे। शारीरिक शोषण के
अलावा मानसिक व उपेक्षापूर्ण शोषण के तथ्य भी अध्ययन के दौरान उभरकर आये। हर दूसरे
बच्चे ने मानसिक शोषण की बात स्वीकारी, जहाँ ८३ प्रतिच्चत जिम्मेदार माँ-बाप ही
होते हैं। निश्चिततः यह स्थिति भयावह है। एक सभ्य समाज में बच्चों के साथ इस प्रकार
की स्थिति को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
बालश्रम की बात करें तो आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक भारत में फिलहाल लगभग ५ करोड़
बाल श्रमिक हैं। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी भारत में सर्वाधिक बाल श्रमिक
होने पर चिन्ता व्यक्त की है। ऐसे बच्चे कहीं बाल-वेश्यावृत्ति में झोंके गये हैं
या खतरनाक उद्योगों या सड़क के किनारे किसी ढाबे में जूठे बर्तन धो रहे होते हैं या
धार्मिक स्थलों व चौराहों पर भीख माँगते नजर आते हैं अथवा साहब लोगों के घरों में
दासता का जीवन जी रहे होते हैं। सरकार ने सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा
बच्चों को घरेलू बाल मजदूर के रूप में काम पर लगाने के विरुद्ध एक निषेधाज्ञा भी
जारी की पर दुर्भाग्य से सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, नेतागण व बुद्धिजीवी समाज के
लोग ही इन कानूनों का मखौल उड़ा रहे हैं। अकेले वर्ष २००६ में देश भर में करीब २६
लाख बच्चे घरों या अन्य व्यवसायिक केन्द्रों में बतौर नौकर काम कर रहे थे। गौरतलब
है कि अधिकतर स्वयंसेवी संस्थायें या पुलिस खतरनाक उद्योगों में कार्य कर रहे
बच्चों को मुक्त तो करा लेती हैं पर उसके बाद उनकी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती
हैं। नतीजन, ऐसे बच्चे किसी रोजगार या उचित पुनर्वास के अभाव में पुनः उसी दलदल में
या अपराधियों की शरण में जाने को मजबूर होते हैं।
ऐसा नहीं है कि बच्चों के लिये संविधान में विशिष्ट उपबन्ध नहीं हैं। संविधान के
अनुच्छेद १५(३) में बालकों के लिये विशेष उपबन्ध करने हेतु सरकार को शक्तियाँ
प्रदत्त की गयी हैं। अनुच्छेद २३ बालकों के दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का
अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध करता है। इसके तहत सरकार का कर्तव्य केवल बन्धुआ
मजदूरों को मुक्त करना ही नहीं वरन् उनके पुनर्वास की उचित व्यवस्था भी करना है।
अनुच्छेद २४ चौदह वर्ष से कम उम्र के बालकों के कारखानों या किसी परिसंकटमय नियोजन
में लगाने का प्रतिषेध करता है। यही नहीं नीति निदेशक तत्वों में अनुच्छेद ३९ में
स्पष्ट उल्लिखित है कि बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो और आर्थिक
आवश्यकता से विवश होकर उन्हें ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के
अनुकूल न हों। इसी प्रकार बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास
के अवसर और सुविधायें दी जायें और बालकों की शोषण से तथा नैतिक व आर्थिक परित्याग
से रक्षा की जाय। संविधान का अनुच्छेद ४५ आरम्भिक शिशुत्व देखरेख तथा ६ वर्ष से कम
आयु के बच्चों के लिये शिक्षा हेतु उपबन्ध करता है। इसी प्रकार मूल कर्तव्यों में
अनुच्छेद ५१(क) में ८६वें संच्चोधन द्वारा वर्ष २००२ में नया खंड (ट) अंतःस्थापित
करते हुये कहा गया कि जो माता-पिता या संरक्षक हैं, ६ से १४ वर्ष के मध्य आयु के
अपने बच्चों या, यथा - स्थाति अपने पाल्य को शिक्षा का अवसर प्रदान करें। संविधान
के इन उपबन्धों एवं बच्चों के समग्र विकास को वांछित गति प्रदान करने के लिये १९८५
में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन महिला और बाल विकास विभाग गठित किया गया।
बच्चों के अधिकारों और समाज के प्रति उनके कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए ९ फरवरी
२००४ को ÷राष्ट्रीय बाल घोषणा पत्र' को राजपत्र में अधिसूचित किया गया, जिसका
उद्देश्य बच्चों को जीवन जीने, स्वास्थय देखभाल, पोषाहार, जीवन स्तर, च्चिक्षा और
शोषण से मुक्ति के अधिकार सुनिश्चित कराना है। यह घोषणापत्र बच्चों के अधिकारों के
बारे में अन्तर्राष्ट्रीय समझौते (१९८९) के अनुरूप है, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर
किये हैं। यही नहीं हर वर्ष १४ नवम्बर को नेहरू जयन्ती को बाल दिवस के रूप में
मनाया जाता है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा मुसीबत में फँसे बच्चों हेतु
चाइल्ड हेल्प लाइन-१९०८ की शुरुआत की गई है। १८ वर्ष तक के जरुरत मन्द बच्चे या फिर
उनके शुभ चिन्तक इस हेल्प लाइन पर फोन करके मुसीबत में फंसे बच्चों को तुरन्त मदद
दिला सकते हैं। यह हेल्प लाइन उन बच्चों की भी मदद करती है जो बालश्रम के शिकार
हैं। हाल ही में भारत सरकार द्वारा २३ फरवरी २००७ को ÷बाल आयोग' का गठन भी किया गया
है। बाल आयोग बनाने के पीछे बच्चों को आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगों, उत्पीड़न, घरेलू
हिंसा अच्च्लील साहित्य व वेश्यावृत्ति, एड्स, हिंसा, अवैध व्यापार व प्राकृतिक
विपदा से बचाने जैसे उद्देच्च्य निहित हैं। बाल आयोग, बाल अधिकारों से जुड़े किसी भी
मामले की जाँच कर सकता है और ऐसे मामलों में उचित कार्यवाही करने हेतु राज्य सरकार
या पुलिस को निर्देश दे सकता है। इतने संवैधानिक उपबन्धों, नियमों-कानूनों, संधियों
और आयोगों के बावजूद यदि बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है, तो कहीं न कहीं इसके
लिये समाज भी दोषी है। कोई भी कानून स्थिति सुधारने का दावा नहीं कर सकता, वह मात्र
एक राह दिखाता है। जरूरत है कि बच्चों को पूरा पारिवारिक-सामाजिक-नैतिक समर्थन दिया
जाये, ताकि वे राष्ट्र की नींव मजबूत बनाने में अपना योगदान कर सकें।
कई देशों में तो बच्चों के लिए अलग से लोकपाल नियुक्त हैं। सर्वप्रथम नार्वे ने
१९८१ में बाल अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक अधिकारों से युक्त लोकपाल की
नियुक्ति की। कालान्तर में आस्ट्रेलिया, कोस्टारिका, स्वीडन १९९३, स्पेन (१९९६),
फिनलैण्ड इत्यादि देशों ने भी बच्चों के लिए लोकपाल की नियुक्ति की। लोकपाल का
कर्तव्य है कि बाल अधिकार आयोग के अनुसार बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देना तथा
उनके हितों का समर्थन करना। यही नहीं निजी और सार्वजनिक प्राधिकारियों में बाल
अधिकारों के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करना भी उनके दायित्वों में है। कुछ देशों में
तो लोकपाल सार्वजनिक विमर्श में भाग लेकर जनता की अभिरुचि बाल अधिकारों के प्रति
बढ़ाते हैं एवं जनता व नीति निर्धारकों के रवैये को प्रभावित करते हैं। यही नहीं वे
बच्चों और युवाओं के साथ निरन्तर सम्वाद कायम रखते हैं, ताकि उनके दृष्टिकोण और
विचारों को समझा जा सके। बच्चों के प्रति बढ़ते दुर्व्यवहार एवं बालश्रम की समस्याओं
के मद्देनजर भारत में भी बच्चों के लिए स्वतंत्र लोकपाल व्यवस्था गठित करने की माँग
की जा रही है।पर मूल प्रश्न यह है कि इतने संवैधानिक उपबन्धों, नियमों-कानूनों,
संधियों और आयोगों के बावजूद यदि बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है, तो समाज भी
अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। कोई भी कानून स्थिति सुधारने का दावा नहीं कर
सकता, वह तो मात्र एक राह दिखाता है। जरूरत है कि बच्चों को पूरा
पारिवारिक-सामाजिक-नैतिक समर्थन दिया जाये, ताकि वे राष्ट्र की नींव मजबूत बनाने
में अपना योगदान कर सकें।
आज जरूरत है कि बालश्रम और बाल उत्पीड़न की स्थिति से राष्ट्र को उबारा जाये। ये
बच्चे भले ही आज वोट बैंक नहीं हैं पर आने वाले कल के नेतृत्वकर्ता हैं। उन
अभिभावकों को जो कि तात्कालिक लालच में आकर अपने बच्चों को बालश्रम में झोंक देते
हैं, भी इस सम्बन्ध में समझदारी का निर्वाह करना पड़ेगा कि बच्चों को च्चिक्षा रूपी
उनके मूलाधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये। गैर सरकारी संगठनों और सरकारी
मशीनरी को भी मात्र कागजी खानापूर्ति या मीडिया की निगाह में आने के लिये अपने
दायित्वों का निर्वहन नहीं करना चाहिये वल्कि उनका उद्देश्य इनकी वास्तविक
स्वतन्त्रता सुनिश्चित करना होना चाहिये। आज यह सोचने की जरूरत है कि जिन बच्चों पर
देश के भविष्य की नींव टिकी हुई है, उनकी नींव खुद ही कमजोर हो तो वे भला राष्ट्र
का बोझ क्या उठायेंगे। अतः बाल अधिकारों के प्रति सजगता एक सुखी और समृद्ध राष्ट्र
की प्रथम आवश्यकता है।
आकांक्षा यादव