राजस्थानी लोकगायक वर्ग लंगा और मांगनियार पर लेखन
खाने कमाने के अलावा भी बहुत से काम हैं जिन्दगी में। ऐसे ही विचारों को अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में रपटीली राहों पर जगह देने वाले लोग, कम फीसदी ही सही लेकिन ऐसे लोगों को छोड़ दें तो, बाकी के जमाने को कला और संस्कृति से कोई ज्यादा लेना-देना नहीं रहा है। ये बात दर्दभरी भी है और चिन्तनभरी भी। हर रोज एक नये कलेवर में घर के दरवाजे पर दस्तक देने वाली महंगाई जैसी मौसी के बच्चों को घर में पाले पोषे या नित नये रूप में सजे धजे हाट बाजारों से घर के लिए गैर जरूरी शोभा बढ़ाने वाले झुमर, पेन्टिंग, चिकने पेपर वाली किताबें या बेमतलब के दिखावटी डिनर सेट खरीदें, ये स्वभाव अब ज्यादा फीसदी लोग अपना चुके हैं। एक तरफ आधी दुनिया अभावों को ही अपनी किस्मत मान चुकी है और उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान वाली बारखड़ी के बाद ही याद आती है कला और संस्कृति की दुनियां। मैं सोचता हूं भला हो ऐसे उस वर्ग का भी जो अपने दिखावटी या सजावटी व्यक्तित्व के भरोसे ही सही मगर हाँ कुछ फैशन और कलापरक आयोजनों के लिए समय तो निकालता है। भले ही ना पढ़े मगर हां घर के ड्राईंग रूप में एक लाईब्रेरी सजाता है। ऐसे ही पेचिदा समाज मिति वाले परिवेश में राजस्थान के ठेठ पश्चिमी इलाकों में जी रही लंगा और मांगणियार की लोकप्रिय गायन शैली के साथ बिताये हुए कुछ पलों और अनुभवों को आपके लिए लिख रहा हूं। पिछले दिनों बीकानेर में 19 दिसम्बर 2009 की रात के पहले प्रहर में जब मेरी मुलाकात उसी परम्परागत गायकी से हो रही थी, केवल फरक इतना सा था कि इस बार कोई बड़ा नामचीन कलाकार मेरे सामने नहीं बैठा था। बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर और आस पास के गांवों के वे लंगा और मांगणियार लोग जो शायद दस से बारह के करीब थे, अपने साजो सामान के साथ मंच पर बैठे थे। दो सिंधी सारंगियों की मंद मंद रूप में छन छनकर आती सुरबहार के बीच कभी नीचे कभी ऊंचे स्वर में गाते उन गरीब परिवारों के होनहार गलों से मेरा परिचय हो रहा था।
अनौपचारिक माहौल में हो रही उस मुलाकात में मेरे कई संस्कृतिकर्मी साथी मेरे आस पास सपरिवार थे। बस मैं ही एक अकेला था, जो परिवार के साथ न होने से प्रस्तुति पर खुद को ज्यादा केन्द्रित कर पा रहा था। अभी तलक के सफर में मुझे केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्राप्त बुन्दु खाँ लंगा, बड़े गाजी खाँ, भुट्टे खाँ मांगणियार और रोजे खाँ मांगणियार को पहले भी कई बार सुनने का अनुभव और उनके कार्यक्रमों के आयोजन का लम्बा अनुभव हो चुका था। केवल एक या दो ही ढोलक के भरोसे चल रही उस संगीत यात्रा में कई बार दिल करता रहा कि तालियों से उनका साथ दें, और कर भी क्या सकते हैं? यह थी ज्यादा लोकप्रिय होने के बाद भी कम दूध देती गाय की तरह की गायकी। एक के बाद एक बधावा और कृष्णभक्ति के भजन सुने मगर एक बात जो मैं समझ पाया वो ये कि थोड़ी बहुत खेती के बाद वे ले देकर अपने परिवारों को अभावों की जिन्दगी से पीछा छुड़ाने में नाकाम ही रहते थे। परेशानियों से गहरा नाता रखने वाले इन पारखी लोगों की नायाब और सुरीली संगीत परम्परा की उपज कई बार हमें आकर्षित करती है। लेकिन कभी अचानक इनकी निजी जिन्दगी के भीतर झाँकने के मेरे अनुभव के बाद कलम कुछ और ही लिखने को कहती रही। लगभग सभी दुबले पतले कलाकर्मियों की मण्डली में एक या दो ही ठीक-ठाक शरीर वाले होते हैं। कुछ नाबालिग बच्चों और कुछ बालिग युवाओं के साथ-साथ एकाध बुजुर्ग भी शामिल हुआ नजर आता है। कुल मिलाकर लम्बे चैड़े परिवारों में केवली आदमीजात ही इन कार्यक्रमों के नाते कुछ आमदानी ला पाते हैं। बच्चों को स्कुल की किताबों से ज्यादा विदेश ले जाने वाले पासपोर्ट अवेरने का ज्यादा शौक है। ले दे के इनके पास एक या दो जोड़ी ही कपड़े होते रहे, किसी खास प्रोग्राम के लिये एक जोड़ी साफ सुथरी हो और गंवई पहचान देने वाली हो, ये हमेशा तैयार रखते है। एक जब्बा-कुर्ता, उपर से रंगीन छापे वाला गमछा इनकी जरूरतों में शामिल होता है और बाकी रियाज लगातार इनके गले के आसपास चलती रहती है। यही इनकी लागत है, बाकी तो हुनर की कमाई ही होती है।
कुछ बड़े सरकारी आयोजनों के साथ ही गिनी चुनी गैर सरकारी संस्थाओं के भरोसे ये आर्थिक रूप से ज्यादा आजाद रह नहीं पाते, वहीं आए दिन शादी-ब्याह से लेकर हर तरह के खुशी के अवसर पर घर तलक आकर कार्यक्रम देना इनकी नियती और मजबुरी बनी हुई है। ध्यान या आध्यात्म से ज्यादा मनोरंजनपरक होने से इनके कार्यक्रम हमेशा सभी को भाते रहे हैं। कई बार मंच पर दस से बारह सालाना उम्र के बच्चे भी पूरी हुनरमन्दी के साथ अपनी प्रस्तुति देते है। ये ही इन कलाजीवी लोगों की ऊपरी की कहानी है।
आम आदमी पढ़-पढ़ाकर विदेश जाने के सपने देखता है और इधर ये लंगा-मांगणियार बिना पढ़े ही हर सातवें दिन विदेश की हवा खा आते हैं। इनकी उन्नत जीवन शैली के लिये कितने ईमानदार प्रयास अभी तक किये गये या ये कलाकार खुद ही अपने पैचिदे समाजशास्त्र के लिए जिम्मेदार हैं। ये अपने आप में पता लगाने का विषय है। लगभग आम तौर पर ज्यादा लोकप्रिय लोकगीतों को छोड़कर ठेठ पुरानी तरह के गीतों की फरमाईश इनके कार्यक्रमों में कम ही की जाती है। वैसे जानकारों और रूचिशील श्रोताओं के लिए इनके पास ऐसे अनेक गीतों का भण्डार है जो उनके द्वारा कम ही गाया दिखाया जाता है। ऐसे ही गीतों को और गायकों के लिए कुछ करने की जरूरत है। वैसे फरमाईश ना भी करें तो भी ये सादे कलाकार अपने उन मोटी रूप में पहचान दर्ज कराने वाले लोकप्रिय गीतों जैसे ‘निंबुड़ा’ ‘दमादम मस्त कलंदर’ और ‘केसरिया बालम’ जैसे गीतों को गा ही देते हैं और बदले में कितनी ही तालियां बजा कर भी हम मंच पर बैठे उन बाल कलाकारों का बचपन वापस नहीं दिला सकते जिसे बलिदान करके वे हमारे लिए सुरीले गीत पेश करते हैं।
ये व्यवस्था कमोबेश रूप में आज भी बनी हुई है, कभी-कभार इनके कार्यक्रमों में कालबेलिया जाति के बीनवादक और नृत्यांगनाएं भी बुलाई जाती है। बहुत सादे लिबास वाले ये अपने से लगने वाले कलाकार जब भी मंच पर चढ़ते हैं तो कभी कभार अपने छोटे बच्चों को पीछे की पंक्तियों में साथ रखकर संगत देते रहते हैं। गाने बजाने में नकल करते इनके बच्चे सार्वजनिक रूप से ही कभी कभार अपना गला साफ कर लेते हैं, वहीं किसी की फरमाईश को आदेश की तरह मान कर अपनी ओर से जितनी भी अच्छी हो प्रस्तुत करने की इनकी फितरत किसी को भी एकदम से अपनी और खिचती है
बहुत बड़े भरोसे और आत्मविश्वास के साथ मंच पर गाने बजाने वाले इन बाल कलाकारों को नहीं मालूम कि जीवन की असल राहों में उनका अनपढ़ होना कितना बड़ा रोड़ा बन जायेगा, कई बिचोलिए, बिना मेहनत के इनकी कमाई का बड़ा हिस्सा मार जायेंगे, कितने दूभाषिए, विदेशांे में होने वाले कार्यक्रमों के कान्ट्रेक्ट की गलत व्याख्याएं कर जायेंगे। एक और बात जो खासतौर पर देखी गई कि इन कलाकारों को अपने मेहनताने में 200-300 रूपये के आसपास ही मिल पाते हैं, जो इनके गरीबी के दिनों में उन दिनों के भोजन, आवास और यात्रा की सुविधा के बाद लगभग ठीक अनुभव होते हैं। हिचकी, गोरबन्द सरीखे गीतों के ज़रिये हिन्दुस्तान के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जबरदस्त हाज़री दर्ज़ कराने वाले ये कलाकार मण्डल ज़माने के साथ कुछ हद तक तो चालाक और जानकारीभरे बने हैं, मगर अभी भी बहुत सी गुंजाईश बाकी है। ठेठ लोकवाद्य जैसे सतारा, मुरला, अलगोजा, खड़ताल और मोरचंग को काम में लेते हुए ये दल अपनी यात्राओं में कभी कभार अंग्रेजी के दो-चार शबद भी बोल पड़ते हैं। इनकी जुबां पर पांच से सात देशों के नाम तो कभी भी आप फर्राटे से सुन सकते हैं, विदेश जाना-आना और हवाई जहाज की यात्रा के अनुभव तो इनके लिए पड़ौस के गांव या सब्जी मण्डी जाकर आने जैसा लगता है। ये मूल रूप से लंगा और मांगणियार दो अलग अलग जातिवर्ग में बंटे हैं लेकिन व्यावसायिक रूप में कभी भी एक दूसरे वर्ग के कलाकारों को बुलाकर कार्यक्रमों को भरा पूरा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। जहां लंगा मूल रूप से मुस्लिम जाति वर्ग के लिए गाते बजाते रहे है वहीं मांगणियार राजपूत वर्ग के दरबारों में प्रस्तुत कर लेती है। आठ से साठ वर्ष की उम्र वाले कला के इन जानकारों के सर पर रंगीन पगड़ियां सजी सजाई मिल जाती है। एक और बात जो मैं समझ पाया वो यह कि अपनी तबीयत के लिए बेफिक्र इन कलाकारों के बच्चों के दांत लगभग पीले ही देखे हैं जो बालपन में ही इनकी तम्बाकू की लत की कहानी कहते हैं। लंगा और मांगणियार की ये विशिष्ट गायन शैलियां आज देश में सभी ओर चर्चित है। शादीब्याह या जलवा पूजन से लेकर बड़े आयोजनों तक की शोभा बनी हुई है। ये ही वो लोग है जिनमें से कुछ बेहतरीन आवाजें समय रहते पहचान ली गई और सिरमौर सम्मानों से नवाज़ी भी जा चुकी हैं। मगर जानकारों के अनुसार आज भी कई सुरीले कण्ठ रेत के धोरों में ही छुपे पड़े हैं और कई कण्ठ, पारखी जौहरी की तलाश में ये जहां छोड़ चले।
राजस्थानी लोक गायन संस्कृति के कई जमींदारों को आज भी बाड़मेर राजस्थान की कवास नदी वाली बाढ़ के सपने आते हैं लेकिन इतनी सुन्दर गायकी के संरक्षण के लिए जितनी दमतोड़ मेहनत ये कलाकार खुद-ब-खुद ही कर रहे हैं उतनी शायद कोई भी आयोजक संस्थाएं नहीं कर पा रही हैं। इस परम्परा की महत्ता हमें तब याद आती है जब हमारे परदेश में प्रवास पर रहते वक्त हमें कोई पूछता है कि आपके राजस्थान की क्या कुछ खासियत है?, सच मानिएं पैसा, कार, पढ़ाई, माॅलसंस्कृति, सुपर मार्केट ये तो लगभग सभी जगह मिल जाएंगे, जो कहीं नहीं है केवल और केवल हमारी अपनी धरती की पहचान है उनमें घूमर, भवाई, ख्याल, स्वांग, टेरेकोटा, ब्लू पाॅट्री, हवेली संगीत, भव्य किले, झर्झर लेकिन वैभवशाली इमारतें और ले दे कर याद आते हैं लंगा और मांगणियार। दूसरी तरफ कुछ बातें बड़ी साफ-साफ है, हमारा जो खास अपना है, उस पर से हम लोगों की नज़रें लगभग हट चुकी है, या वो हमारी प्राथमिकताओं की सूची से गायब है। सच मानिएं पाठकों, उन खास चीजों पर औरों की निगाहें बहुत दिनों से जमी हुई है। अब गेन्द आपके पाले में है कि आप अपनी प्राथमिकताओं की लिस्ट को कैसे समायोजित करके, अपने और पराये की संस्कृति को अपनी बची-कुची बुद्धि से फरक करते हुए देखते हैं। कहानी लम्बी है, हमसफर बढ़ते जा रहे हैं आज के आलेख में इतना ही, बाकी की लिखावट आपके जिम्मे................