…. बात वस इतनी सी थी कि मुझे छोड़ गये,
मुझे छोड़ा और मेरा ये शहर ही छोड़ गये |
शीशे के घरों में रहता था शीशा तो नहीं था मैं,
पत्थर से तोड़ा घर और पत्थर ही छोड़ गये |
दरिया किनारे बस्ती थी पानी को तरसता था,
सैलाब बढ़ा घर तक और लहर ही छोड़ गये |
डूबी बस्ती-घर-छप्पर उस संग तैरता था,
आये जो- राहत देने और कहर ही छोड़ गये |
आस्थाएं- कहाँ गयीं जिन्हें पूजता था “गौतम”,
जिन्दगी देके पीने को और जहर ही छोड़ गये |
हाथों की लकीरों को फकीर बलवान बताता था,
खुद फकीर मेरे पीर भी और भंवर ही छोड़ गये |