मिलते ही गई अपने हबीबों की उदासी
फैली है मगर उनके रक़ीबों की उदासी
जब इश्क़ में बढ़ता हैं गुमाँ हद से ज़ियादा
इम्कान बढ़ा देती हबीबों की उदासी
विश्वास की जब जब भी कोई अर्थी उठी है
बढ़ जाती हैं काँधों पे सलीबों की उदासी
ता- उम्र जो लिखते ही रहे, पढ़ न सके हम
क्या छुपती लकीरों में अदीबों की उदासी
बहता हुआ सब देखते हैं सिर्फ़ पसीना
देखी है कहाँ किसने ग़रीबों की उदासी
देवी न ख़ुशी, गम से कभी फ़र्क पड़ा है
हैं इनसे मगर बढ़ती नसीबो की उदासी
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