खून से मेंहदी रचाते हैं :
अदा देखो, नक़ाबे-चश्म वो कैसे उठाते हैं,
अभी तो पी नहीं फिर भी क़दम क्यों डगमगाते हैं?
ज़रा अन्दाज़ तो देखो, न है तलवार हाथों में,
हमारा दिल ज़िबह कर, खून से मेंहदी रचाते हैं।
हमें मञ्ज़ूर है गर, गैर से भी प्यार हो जाए,
कमज़कम सीख जाएंगी कि दिल कैसे लगाते हैं।
सुना है आज वो हम से ख़फ़ा हैं, बेरुख़ी भी है,
नज़र से फिर नज़र हर बार क्यों हम से मिलाते हैं?
हमारी क्या ख़ता है, आज जो ऐसी सज़ा दी है,
ज़रा सा होश आता है मगर फिर भी पिलाते हैं।
ज़रा तिर्छी नज़र से आग कुछ ऐसी लगादी है,
बुझे ना ज़िन्दगी भर, रात दिन दिल को जलाते हैं।
वफ़ा के इम्तहाँ में जान ले ली, ये भी ना देखा
किसी की लाश के पहलू में खंजर भूल जाते हैं।
महावीर शर्मा
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