रात के आलम से पूछो, शमा जली या हम जले
थम गई कई बार धड़कनें, फिर भी न दम निकले

रक़ीब से मिलकर दोस्त , आ रहें हैं वो यकींनन
बेवज़ह तो उनके चेहरे, दिखते न यूँ खिले - खिले

मेरी शिकस्तगी देख - देख, हँस रहा ये ज़माना है
जितने क़दम जानिबे यार बढ़े,उतने बढ गये फासले

रोज़ का तो गम नहीं, दोस्त रहते आस-पास घिरे
छोड़ जाते तनहा सभी , ज्यों ही सिंदूरी शाम ढले

खजाना 'विभूति ' का, कभी खाली न होता दर्द का
एक नया ज़ख्म वो देकर जाते,ज्यों ही पुराने सिले

ज़िन्दगी की तेज धूप में, न जाने झुलसे कहाँ-कहाँ
आखिरी शाम तो गुजरे, उनकी जुल्फों के साये तले

 

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