पंथ वह मेरा नहीं था,
इसलिए मैं लौट आया।

मधुमयी मधुमास भी था,
नेह का उच्छ्वास भी था,
प्रीति की अनुपम छटा थी,
हर्ष की छायी घटा थी,
मोद नभ से बरसता था,
मुक्ति को दुःख तरसता था,
थे हजारों धाम सुख के,
धाम पर तेरा नहीं था।
इसलिए मैं लौट आया।

राज मुझको मिल रहा था,
ताज मुझको मिल रहा था,
स्वर्ग चरणों में पड़ा था,
हास कर जोड़े खड़ा था,
क्या अनोखी संपदा थी,
मगर मेरी भी अदा थी,
भले सब थे रोकते, पर
आपने टेरा नहीं था।
इसलिए मैं लौट आया।

क्या करूँ वरदान लेकर ?
क्या करूँगा मान लेकर ?
सृष्टि का भी क्या करूँगा ?
दृष्टि का भी क्या करूँगा ?
किसलिए जीवन सँवारूँ ?
बिन तुम्हारे क्या निहारूँ ?
सामने तो थे करोड़ों,
तुम्हारा चेहरा नहीं था।
इसलिए मैं लौट आया।

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