और नहीं..
                                          ० शरद तैलंग
 
ट्रेन जाने में अभी कुछ समय बाक़ी था । अरुण को छोड़ने  उसकी मां और पापा स्टेशन पर आए थे । बीए करने के पश्चात एमबीए करने के लिए बेटा पहली बार दूसरे शहर जा रहा था ।
        �अब आप लोग घर जाइए, मैं चला   जाऊंगा । आपकी तबियत भी ठीक नहीं है, यहां कब तक खडॆ़ रहेंगे� ? अरुण ने अपने पापा से कहा । उसके मन में कुछ अकुलाहट सी थी ।
      �चले जाएंगे, अभी गाड़ी तो जाने दो�  मां ने जवाब दिया । वे दोनों अपने लाड़ले को ट्रेन में बैठाकर उसके रवाना होने तक वहीं रहना
चाहते थे   । बेटे के चेहरे पर व्याकुलता   के भाव बढ़्ते जा रहे थे, लगता था वह अपनी मां और पापा को नाहक कष्ट देना नहीं चाहता था । �आप क्यूं परेशान हो रहे हैं ? मैं चला जाऊंगा । चलिए आपको बाहर तक छोड् दूं� अरुण फिर बोला   । न चाहते हुए भी बेटे को अनेक हिदायतें देते हुए वे दोनों अरुण के पीछे पीछॆ चल दिए । उनके मन में संतोष था कि उनका बेटा उनका कितना ख्याल रखता है  । रिक्शा में दोनों को बैठाकर वह वापस प्लेट्फार्म पर आ गया  । अब उसके चेहरे से खुशी झलक रही थी, उसके होठों पर मुस्कराहट दिखाई दे रही थी। उसकी नज़रें मुख्य द्वार की तरफ घूम जाती थीं । उसका ध्यान बार बार अपनी घडी़ की तरफ जा रहा था । एकाएक उसकी आंखों में चमक दिखाई दी । मुख्यद्वार से उसकी प्रेमिका मालती तेज़ी से अन्दर आ रही थी । ट्रेन जाने तक वह अपनी मां और पापा को और तकलीफ नहीं देना चाहता था ।
 
शरद तैलंग          

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