दद्दू
का
ठेलागाड़ी
नैनी स्टेशन पर , अस्सी साल के दद्दू के हाथ से ठेलागाड़ी लेते हुए , बालक बोल
उठा,’ दद्दू! यह ठेला अब तुमसे नहीं चलनेवाला, इसे मुझे दो; अब मैं इसे चलाऊँगा
।देखो, अब मैं जवान हो रहा हूँ, तुम अब आराम करो ।’ बच्चे की बात सुनकर दद्दू, अपने
चेहरे के पसीने को अंगोछे से पोछते हुए हँस पड़े । उस हँसी में कितना दर्द छुपा था
और कितनी थी तकदीर की बेवफ़ाई; बच्चे को क्या पता ? उसे क्या मालूम, दद्दू क्यों हँस
रहे, उसे तो बस इतना ही समझ में आया,’ मैंने जो बोला, दद्दू को मेरी बात पसंद आई,
इसलिए दद्दू हँस पड़े ।’
बालक , जिसका नाम दद्दू ने बड़े प्यार से सुखदेव रखा था और जिसे सुखना कहकर बुलाते
थे; आज उस दद्दू की आँखों से झड़- झड़कर अश्रुधार बह चले । दद्दू को रोता देख सुखना
पूछ बैठा,’ दद्दू! तुम रोते क्यों हो; इसलिए कि मैंने तुमको ठेला नहीं चलाने दिया
।’ दद्दू ने कहा,’ नहीं, बेटा ! मैं तो अपने आदमी जन्म पर रो रहा हूँ । लोग कहते
हैं, दुख भरे रात की भी सुबह होती है । लेकिन, मेरी रात का सुबह तो कभी आया ही नहीं
।’ बच्चे ने कहा,’दद्दू ! सुबह कैसे नहीं आया, अभी तो दिन के दश बज चुके हैं ।
दद्दू ने मन ही मन कहा,’ हाँ बेटा! तुम भी दश के हो गये हो । तुमको अभी किसी स्कूल
में होना चाहिये था । स्कूल की जगह तुम अपने पूर्वजों के दिये ठेले को खींच रहे हो
।’
देर तक दद्दू को चुप देखकर, सुखना से र्हा न गया । फ़िर वह बोल उठा,’ दद्दू ! यह
ठेलागाड़ी , तुमने खुद बनबाया है ?’ दद्दू ने कहा” नहीं बेटा, इस ठेले को लेकर मेरे
पूर्वजों के पास गरीबन बाई आई थी ; तभी से यह मेरे ही घर रह गई । सुखना बोल उठा ,’
दद्दू ! तब तो यह काफ़ी पुरानी है । अब यह टूटने लगा है । दद्दू ! मेरे बड़े होने से
पहले ही अगर यह टूट गया तो मैं क्या चलाऊँगा ।’ दद्दू ने कहा,’ चाहता तो मैं भी यही
हूँ कि यह टूटकर सदा के लिए मेरी आँखों से ओझल हो जाये । लेकिन ऐसा होगा नहीं । तुम
चिंता न करो, टूटने के पहले मैं दूसरा ठेलागाड़ी बनवा दूँगा । बच्चा खुश हो गया , यह
सोचकर कि मेरा दद्दू कितना अच्छा है ?’ वरना गाँव के मुखिया का पोता , खिलौना का
ठेला खरीदना चाहा तो उसे उसके दद्दू ने डाँट दिया । मेरे दद्दू सचमुच के ठेलागाड़ी
खरीदकर देंगे । खुशी से गदगद बच्चा, ठेलेगाड़ी को धूल भरे सड़क पर रोकते हुए कहा,’
दद्दू ! आओ, तुम इस पर बैठ जाओ । कोई सामान तो आज सेठ दिया नहीं बाजार
पहुँचाने; ठेला खाली क्यों जाये । तुम बैठ जाओ । मैं इसे दौड़ाता लेता चला जाऊँगा ।
’ पहले तो दद्दू ने इनकार किया, मगर बच्चे के जिद के आगे आँखों से उमड़ी गंगा- जल को
पीते हुए, ठेले में बैठ गया । दद्दू के ठेले में बैठते ही सुखना आंतरिक सुख से इठला
उठा ; कहता है,’ दद्दू ! कितना मजा आता है, इस पर बैठने में ।’ दद्दू ने कहा,’ हाँ,
बेटा !’
कुछ देर ठेला चलाने के बाद बच्चा, फ़िर दद्दू से पूछ बैठा,’ दद्दू ! गाँव का मुखिया
दिनभर दरवाजे पर बैठा रहता है, वह भी तो तुम्हारी ही उम्र का है । वे ठेला क्यों
नहीं चलाते ?’ दद्दू न कहा,’ उनके पूर्वज उन्हें ठेला खरीदकर नहीं दे सके ; न ही
गरीबन बाई इसे लेकर उसके घर आई । इतनी छोटी उत्तर को सुनकर सुखना का मन नहीं भरा ।
फ़िर बोल उठा,’ तो अपने ही खरीद लेते । उनके पास तो पैसे हैं।’ दद्दू सुखना के
प्रश्न के सामने विवश और लाचार थे, वे नहीं चाहते थे ,’ मैं अपने फ़ूल से बच्चे को
अभी से , अपने फ़ूटे तकदीर की कहानी बताऊँ । इसलिए वे एक लब्ज में यह कहकर चुप हो
गये । ’ पैसे हैं, तभी तो ठेले नहीं खरीदते हैं । मेरे पास पैसे नहीं हैं, तभी मेरे
पास ठेला है ।