एक अमेरीकन अनुभव
लेखिकाः अनुराधा शर्मा पुजारी
अनुवादकः नागेन्द्र शर्मा
आजकल भवेन बरुआ और मालिनी बरुआ दोनो को देखते ही उनके पङोसी,बंधु-बांधव और यहाँ
तक कि उनके अपने आत्मीय-स्वजन भी आंखे चुरा कर कन्नी काट लेते हैं। क्योंकि वे दोनो
जब-तब और जहां-तहां अपने बेटे की उँची नौकरी और पदवी का बखान इतना बढ-चढ करने लगते
हैं कि अति शिष्टाचारी ब्यक्ति भी उनकी बातों से विरक्त होने लगता है और यह विरक्ति
कभी कभी अभिब्यक्त भी हो जाती है। लेकिन फिर भी वे दोनो इसको नहीं समझते और अपने
बेटे के ऐश्वर्य का बखान जारी रखते हैं।
बरुआ दम्पति का अमेरीकावासी एकलौता पुत्र कम्प्युटर ईंजिनियर है। पिछले चार वर्षों
से राजा अमेरीका मे ही है। इस दौरान बरुआ दम्पति के परिचितों मे शायद ही कोई ऐसा
बचा होगा जिसने राजा के अमेरीका मे रहने और उसके रुतबे की खबर न सुनी हो। खाली समय
मे अमेरीका की बातें और वहां रहने वाले राजा के अनुभवों को सुनना किसी को बुरा नहीं
लगता लेकिन बरुआ दम्पति राह चलते अपने परिचितों को घेर कर जिस तरह राजा की बातें जब
बढ चढ कर सुनाने लगते हैं तो सुनने वाले दूसरी बार उनके सामने पङने से तौबा कर लेते
हैं। इसी डर से सेवा निवृत बरुआ के घर अङोस पङोस और परिचितों का आना जाना कम हो गया
है। लेकिन इस स्थिति के बावजूद मुझे अपने भतीजे शांतनु के लिए बरुआ के यहां जाना
पङा। शांतनु जिसे हम घर मे ‘शांतु’ के नाम से पुकारते हैं दिल्ली मे एम. बी. ए. पढ
रहा था और साथ ही उसने कम्प्युटर का कोर्स भी पूरा कर लिया था। वह एक कैम्पस
इंटरव्यु मे ही किसी विदेशी कम्पनी के द्वारा नौकरी के लिए चुन लिया गया और उसके
साथ चार अन्य लङके लङकियों को भी वहीं नौकरी मिली है। उसे एक माह के भीतर अमेरीका
जाना पङेगा। उसने पत्र लिख कर बतलाया कि अपना कार्य़भार ग्रहण करने के बाद तीन वर्ष
तक भारत नही आ पायेगा। हमे किसी प्रकार से चिंतित न होने की बात भी उसने लिखी है।
वेतन भी अच्छा खासा मिलेगा और उसके आने जाने के खर्च के अतिरिक्त वहां रहने और खाने
पीने का खर्च भी कम्पनी ही वहन करेगी।
शांतनु ने बङे संयत और बेपरवाह होकर हमे इस तरह पत्र लिखा मानो हम पर किसी प्रकार
की कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी और उसके अनुसार न हम चिंचित होंगे। लेकिन उसका यह
पत्र हमारे परिवार मे सबके लिए एक चिंता का कारण बन गया क्योंकि शांतनु के अमेरीका
जाने का कार्य़क्रम हमारे लिए एक अप्रत्याशित घटना स्वरुप थी। शांतनु के पिता मेरे
बङे भाई साहब एक हाईस्कूल मे शिक्षक हैं। नौकरी रहते हुए भी वे आर्थिक संकट के बीच
गुजर रहे हैं और रिटायर होने के बाद भावी गंभीर आर्थिक संकट की आशंका के चलते वे
टूट से गये हैं। कभी कभी चार-पांच माह का वेतन एक साथ मिलता है जो कर्ज चुकाते
चुकाते हाथ खाली हो जाता है और फिर वही ढाक के तीन पात। फिर तीन-चार माह तक वेतन
बंद। तकदीर अच्छी है कि पिताजी ने शहर के बीच केन्द्रीय इलाके मे एक मकान बना दिया
था और वेतन न मिलने तक उसी के किराये से भाई साहब चार सदस्यों वाले परिवार का खर्च
खींच खांच कर चला लेते। भाई साहब के बेटे शांतु की प्रकृति शुरु से ही कुछ अलग रही
है। परिवार की आर्थिक तंगी और माली हालत से परिचित होने के बावजूद वह अपनी
उच्चाकांक्षा पालने से मुंह नही मोङा और एक लक्ष्य को सदैव अपने सामने रख कर चला
है। परीक्षा मे उसका रिजल्ट कोई विशेष उल्लेखनीय भले ही न हो लेकिन उसको नंबर काफी
अच्छे मिलते हैं। अपने साथ के लङके लङकियों की सोच से हट कर उसकी सोच कुछ अलग है।
उसकी सबसे बङी विशेषता यह है कि उसे युवाओं के केरियर के बारे मे काफी जानकारी है
और उसके साथी भी उसकी इस जानकारी का लोहा मानते हैं। हायर सेकेण्डरी प्रथम श्रेणी
मे पास करने के बाद लगभग दस कोर्सेस की जानकारी हासिल कर उसने अपनी किस्मत आजमाने
के लिए दिल्ली जाने का मानस बना लिया। भाई साहब इन सारी बातों से पूरे अनभिज्ञ हैं
और परिस्थिति के चलते इस दिशा मे न तो कभी कुछ सोचा व न कभी कोई कल्पना की। मै
गुवाहाटी मे ऩौकरी करती हूं इसलिए निर्णय लेने का दायित्व मुझे ही उठाना पङा।
शांतनु का कहना था कि असम में पढा कर पिताजी मुझ पर जो खर्च करना चाहते हैं उतने मे
ही मै अपना निर्वाह दिल्ली मे कर लूंगा। सिर्फ मेरे साथ यह तय हुआ कि मै कोई
मुश्किल आने पर उसकी मदद करुंगी। इसके बाद वह दिल्ली चला आया। पता चला कि वह छुट्टी
के दिन किसी हॉटल-रेस्तारां मे काम करता है। यह सुन कर भाई साहब को काफी तकलीफ होती
है। अच्छे भले परिवार मे पल कर उसे यह सब करने की आवश्यकता ही क्या है। अपनी खेती
का अनाज है। घर की रोटी खा कर स्थानीय कॉलेज मे न पढ दिल्ली मे लोगों का जुठा मांज
कर अनजान विषयों की पढाई करने का क्या तुक है। उससे भी अच्छे नंबरो से पास होने
वाले उसके सहपाठियों ने स्थानीय कॉलेजों मे ही दाखिला लिया है। इस तरह की कई
जानकारी दे कर उससे दिल्ली जाने के निर्णय को बदल डालने की अपेक्षा की जाती रही
लेकिन वह सब कुछ हंसी मे उङा देता है। शांतनु जब घर आता है तो उसे यह पूरा अहसास
रहता है कि पिताजी उस पर किस किस बात को लेकर नाराज होंगे लेकिन फिर भी उनकी
नाराजगी को अनदेखी कर वह दस पंद्रह दिन घर पर ठहर कर बिना कोई विरोध अथवा क्षोभ
ब्यक्त किये बङी सहजता के साथ दिल्ली लौट जाता है। शांतनु की एक खास खूबी है कि वह
न तो किसी को आदेश देता है और न किसी की सलाह का अनुसरण करता है। वह अपना निर्णय
पूरे कनफिडेंस के साथ स्वयं लेता है। इसलिए घर भर मे उसके निर्णय को मौन स्वीकृति
देनी ही पङती है। इस तरह धीरे धीरे परिवार के सभी लोग अनजाने ही उस बाईस साल के
शांतनु के कायल होते चले गये।
हमारे इसी शांतनु ने अमेरिका जाने की खबर देते हुए मुझे और पिताजी को पत्र लिखा
जिसे पढ कर खुशी के साथ साथ एक अज्ञात भय से आशंकित भी हुए। क्योंकि कि हमारे
परिवार मे कभी कोई विदेश नहीं गया। हां, हमारी दूर की रिश्तेदारी के कोई एक दादाजी
साठ के दशक मे विदेश गये और वे भी अमेरीका नहीं बल्कि जापान गये थे। शांतनु को जाना
है अमेरिका। भाई साहब उनसे मिल कर भी आये। उन्होने बतलाया कि साठ के दशक मे विदेश
जाने और आज विदेश जाने की स्थिति मे काफी कुछ बदल गया है। समय और दूरियां सिमट गई
है। भाई साहब भूगोल के शिक्षक हैं लेकिन शांतनु के भौगोलिक ज्ञान के सामने उन्हे
अपना भौगोलिक ज्ञान आधा अधूरा लगने लगा। भाई साहब ने तत्काल मुझे बुला भेजा। सब कुछ
शांतनु के कहे अनुसार नहीं हो सकता। नौकरी कैसी है, कम्पनी कोई फर्जी है या असल है,
विदेश मे कोई आकस्मिक मुश्किल आने पर कौन उसकी मदद करेगा आदि बातों की पूरी जानकारी
लिए बिना शांतनु को इस तरह भेज देना उचित नही होगा। भाई साहब के निर्देशानुसार मै
छुट्टी लेकर घर पहूंची और काफी विचार-विमर्ष किया। मैने भाई साहब को समझाने की
कोशिश करते हुए कहा- अमेरिका मे असम के बहुत लोग हैं और भारत के अन्य प्रांत के लोग
तो असंख्य हैं। चिंता करने जैसी कोई बात नहीं है और फिर अपना शांतनु कोई भोला तो है
नही। हर स्थिति को संभालने की क्षमता उसमे है। इसीलिए उसने जो कुछ निर्णय लिया है
वह सोच समझ कर ही लिया है। इतना कुछ समझाने के बावजूद भी भाई साहब आश्वश्त नहीं हो
पाये। अंततः भाभी और भाई साहब को दिलासा देते हुए कहा- खैर, आप चिंता न करें, मेरी
जान पहचान वाले कई मित्र विदेश मे हैं। पहले उनसे जरुरी जानकारी लेती हूं उसके बाद
ही कुछ तय किया जायेगा। घर आकर डायरी के कई पन्ने पलटे। दो चार के पते ठिकाने भी
मिले लेकिन इनमे अमेरिका मे रहने वाला कोई नहीं। कुछ लोग लंदन मे हैं तो कुछ जर्मन
मे। अमेरिका मे रहने वाला कोई नहीं। इस तरह मै डायरी के पन्ने पलट-पलट कर देख ही
रही थी कि अचानक रात को बारह बजे शांतनु ने फोन पर पूछा- “भुआ, इतनी जल्दी सो भी गई
!” कितना अजीब सा सवाल था यह।
रात के बारह बज रहे हैं। क्या इस समय कोई स्वस्थ आदमी जगा रह सकता है ? तुम्हारे भी
सवाल का जबाब नहीं। दस दिन पहले मात्र एक पत्र लिख कर तुमने तो चुप्पी ही साध ली।
तुम्हे मालुम भी है भाभी और भाई साहब को कितनी चिंता हो रही है। चिंता ? काहे की
चिंता भला ? अब भी पूछ रहे हो काहे की चिंता। अपने आपको ज्यादा तीस मारका मत समझो।
तुम्हारे जैसे आज कल के लङके न तो अपनो के प्रति कोई जिम्मेवारी समझते और न उनकी
कोई चिंता ही करते हैं। सिर्फ अपने बारे मे ही सोचते हैं। अमेरिका मे जाकर कहां
रहोगे, कब और कैसे जाओगे, वहां कोई परचित है या नहीं और अचानक अगर कोई विपत्ति आ गई
तो किससे कहोगे,-- ये सारी चिंताएं तुम्हे नही हो सकती है लेकिन परिवार वालों को
है। वे तुम्हारी तरह बेपरवाह और बेफिक्र हो कर नही रह सकते। इस तरह पता नही आवेगिक
हो कर उससे मैने क्या क्या कह डाला। शांतनु चुपचाप सुनता रहा। फिर बोला-- पता नही
आप लोग सभी मुझसे क्यों नाराज हैं। आप लोगों को न मालुम क्यों यह अहसास नही होता कि
मुझे क्या क्या पापङ बेलने पङ रहे हैं। कम्पनी ने भी तो बहुत कम समय दिया है। इतने
कम समय मे पासपोर्ट-विसा आदि की ब्यवस्था करना, मेडिकल टेस्ट और न जाने कितने
कागजात जुटाने है। इतना काम कि मरने की भी फुर्सत नहीं। इस बीच न्यूयार्क से भी ऑफर
मिला है। उनसे भी बारगेयनिंग चल रही है।
बारगेयनिंग ! ये सब कहां और कैसे चलती है ?
शांतनु की बातें सुन कर मै झेंप गई। उसके सामने मै अपने आपको हेय समझने लगी। मन मे
उसके प्रति स्नेह सा उमङने लगा। कुछ कुछ बुरा भी लग रहा था। अभी उसकी उम्र ही क्या
हुई है। कुल बाईस साल का तो हुआ ही है। मुझे आज भी याद है जब मै उसे गोद मे लेकर
खिलाया करती थी। कुछ पुचकारने के लहजे मे कहा - “शांतु, मै सब कुछ समझ सकती हूं।
अच्छा, तुम्हारे साथ और कौन कौन जा रहा है ?”
“मेरे साथ और पांच लङके-लङकियां जा रहीं हैं। लेकिन ब्रांच अलग हैं और हम सब लोग
अलग अलग स्थानों पर जा रहे हैं।
‘अमेरिका मे तेरा कोई जान पहचान वाला भी रहता भी है?’
“नहीं,कोई नही, क्यों?
“कहने का मतलब है कि हमारा भी वहां कोई परिचित नही, आखिर भाई साहब को तो चिंता होगी
ही न। आजकल स्थितियां भी तो बदल गई है। सुन कर शांतनु हंस पङा- भुआ, आप भी कैसी
बाते करती हैं। भुआ, आज विश्व ‘ग्लोबल विलेज’ बन कर रह गया है। दुनिया बहुत छोटी हो
गई है। भुआ, मै कोई जन-विहीन झाङ-जंगल मे तो जा नहीं रहा। मानव समाज मे ही तो जा
रहा हूं। जान पहचान करने मे कोई समय थोङे ही लगता है।
कितना कनफिडेन्ट है शांतनु। मेरे और शांतनु के बीच उम्र का फासला सोलह वर्ष का है।
लेकिन उसकी बातें सुनकर मुझे लगता है जैसे उम्र का यह फासला सोलह हजार आलोक वर्ष का
फासला है। शांतनु ने बस इतना कहा- पिताजी सहित सबको समझाने का दायित्व आपका है इसके
अलावा मै कुछ नहीं जानता। फोन पर सबको समझाने का अर्थ है फोन के बिल के लम्बे खर्च
को वहन करना। पत्र लिख कर समझाउँ इतना मेरे पास समय नहीं है। इस समय आपको फोन करने
की वजह यह है कि आप जैसे भी हो मेरे लिए कम से कम तीस हजार रुपैयों की ब्यवस्था कर
दें। एक माह के भीतर ही लौटा दूंगा। अपने बैंक एकाउंट के सारे पार्टीकुलर्स भी
भिजवा देवें। गुड नाइट ! और फिर फोन के स्वर मौन हो गये। शांतनु ने मुझे बोलने का
मौका ही नहीं दिया।
शांतनु से फोन पर बातचीत करने के बाद मै देर रात तक सो न सकी। दिमाग मे बहुत सी
बातें आ जा रही थी। सेल्फमेड शांतनु ने सब कुछ अपने बल बूते पर किया था। इसलिए उसमे
आत्मविश्वाश भी पूरा है। उसकी सोच आज के समय के अनुकूल है। हमारी सोच उससे नहीं
मिलती और मिलना उचित भी नहीं। क्योकि मै यह समझ सकती हूं कि उसकी सोच युगसापेक्ष
है। दिमाग मे चिंतन प्रवाह चल रहा था कि हठात् भवेन वरुआ और मालिनी बरुआ का स्मरण
आया। उनका बेटा राजा अमेरिका मे रहता है। सोचा उसका पता ठिकाना शांतनु को दे देना
उचित होगा। यह सोच कर उनके यहां जाने का निश्चय कर लिया।
बरुआ अपने बरामदे मे सुबह का अखबार पढ रहे थे। मुझे देख कर खुशी से फूले न समाये और
करीब करीब चिल्लाते से अपनी पत्नी को पुकारते हुए कहा-- अरे ! देखो देखो कौन आया है
और मेरी तरफ मुङ कर कहा ---- तुमसे तो आजकल दिखलाई भी नहीं पङती। ईद के चांद की
तरह। जरुर कोई बङा काम है वरना तुम हम बुढा-बुढी के पास क्यों आती भला। फूफा की बात
सुन कर बङी शर्म महसूस हुई और अपने आने का मकसद बतलाते हुए कहा - आप ठीक कह रहे
हैं, एक जरुरी काम से ही आई हूं। वैसे आप दोनो को सुबह शाम टहलते हुए देख कर मालुम
तो हो जाता है कि आप लोग ठीक ठाक हैं। कोई ऐसी वैसी बात होने से हम लोग तो हैं ही।
भीतर से आकर फूफी ने कहा- ओ ! तो तुम हो। जरूर कोई काम होगा वरना भला तुम कहां आने
वाली। इस तरह के कई वाक्य-वाण साध कर चाय बनाने भीतर चली गई।
“जानती हो, पिछले माह अमेरिका की घटनाओं की खबरें सुन कर तो हमें काफी चिंता हो रही
थी। वो तो राजा ने तुरंत ई-मेल भेज कर अपने कुशल मंगल की खबर देदी नहीं तो पता नहीं
चिंता के मारे हमारा क्या हाल होता। राजा हम लोगों का काफी ख्याल रखता है। वह जानता
है कि घटनाओं की खबर से हमे चिंता होगी और यही सोच कर तत्काल ई-मेल कर दी। वह
वाशिंगटन मे ही रहता है लेकिन उसके इलाके मे कुछ नहीं हुआ। तुम तो जानती ही हो
अमेरिका एक धनी देश है। यदि कुछ हो भी जाता है तो पलक झपकते ही सब कुछ ज्यों का
त्यों हो जाता है। वह कोई हमारे देश की तरह थोङे ही है। हमारे सामने के रास्ते को
ही देखो। क्या कोई इसे मैन रोड मान सकता है ? हमारी हालत देख कर कोई भी अमेरीकन हमे
मानव समझेगा मुझे तो शक है। इधर हाल ही मे राजा ने लिखा है कि वह दिसंबर मे अपने दो
एक अमेरीकन बंधु-बांधवी के साथ स्वदेश आ रहा है। पर हमे तो अपने सामने के रास्ते को
लेकर शर्म महसूस हो रही है। यदि कुछ पत्थर भी गिर जाते तो रास्ता कुछ तो अच्छा
होता”।
“फूफा, सच पूछे तो मै भी राजा के बारे मे जानने के लिए आई हूं। मेरे एक भतीजे को
अमेरीका मे नोकरी मिली है और जल्द ही वहां जाना चाहता है। सोचा, राजा का पता-ठिकाना
उसे दे दिया जाये तो उसे एक आदमी तो वहां परिचित मिल जायेगा। आप तो जानते ही हैं कि
हम लोग मिडिल क्लास के लोग हैं। हमारे परिवार मे तो आज तक कोई विदेश गया ही नहीं।
राजा से मिलते जुलते रहेगा तो भले बुरे समय पर काम आयेगा”।
“अरे, तुम कुछ भी चिंता मत करो। यदि वह राजा से मिल लेगा तो राजा उसे एक ही माह मे
पूरा अमेरिकन बना देगा। जानती हो, एक बार तुम्हारी भुआ के जीजा राजा से मिले थे। उस
समय काम जॉयन किये राजा को एक साल ही हुआ था। इसके जीजा ने वहां से लौट कर बतलाया
कि राजा पूरा अमेरिकन हो गया है। राजा ने उनको खूब घुमाया फिराया। बहुत सारे
दर्शनीय स्थान दिखाये।
भुआ इस बीच चाय लेकर आ गई। “किसकी बातें हो रही है। ओ ! अच्छा-अच्छा राजा की ?” बङे
गर्व और संतोष के साथ एक कुर्सी पर बैठ कर भुआ ने बोलना शुरु किया - “ वह मुझे
‘मदर्स-डे’ का कार्ड भेजता है। मै भला यह सब क्या जानूं। अमेरिका मे मदर्स डे बङी
धूम-धाम से मनाया जाता है। शायद इस दिन उसे मेरी बहुत याद आती होगी और फिर भला याद
क्यों नही आयेगी। वह हमारा एक मात्र पुत्र जो ठहरा। गीले मे मै सोती और सुखे मे
उसको सुलाती और इस तरह बङे प्यार और कष्ट के साथ उसका लालन-पालन कर उसे बङा किया
है। इसका मेरे बेटे को पूरा अहसास है। अमेरिका जाते समय छोटे बच्चे की तरह फूट-फूट
कर बङा रोया। आखिर हमने ही उसे समझाया -- बेटा, हमेशा माँ-बाप के आँचल तले रहने के
लिए हमने इतना पढाया लिखाया है? जाओ और दुनिया देखो। कितने लङको को भला अमेरीका मे
बङी नौकरी नसीब हुई है और फिर भारत मे रह कर करोगे भी क्या। क्या तुम्हे नहीं मालुम
यहां नौकरी के लिए कितनी मारा मारी है ? पढे-लिखे कितने बेरोजगार लोग दर दर भटक रहे
हैं ?”
“फिर भी भुआ, अपने लङके को सुदूर परदेश, जहां अपना कहने के लिए कोई नहीं, भेजने से
चिंता तो होती ही है। हमारा शांतनु भी अमेरीका जा रहा है इसलिए हमे तो बङी चिंता हो
रही है। कह रहा था जॉब जॉयन करने के बाद तीन साल तक स्वदेश नहीं लौट पायेगा। सोचो,
यह कम चिंता का विषय है।“
“अरे भई, अपने आपको इतना सेंटिमेन्टल मत होने दो। शांतनु जैसे लङके को साल दर साल
नौकरी की तलाश मे भटकते भटकते यदि हताश होते देखना नही चाहती तो उसे खुशी खुशी विदा
करो। शांतनु को पढा लिखा कर उसके पिता ने अपना फर्ज पूरा कर दिया और अब शांतनु को
भी तो अपना फर्ज निभाने दो”।
“भई, आजकल मुझे तो कुछ याद नही रहता। कहीं रखा होगा तो मिल जायेगा। अरे सुनती हो,
राजा का ठिकाना कहां लिखा है जरा तलाश कर देदो। दर असल हमे कोई खर्च करना न पङे यह
सोच कर वही ई-मेल कर देता है अथवा फोन पर बात कर हमारी कुशल मंगल पूछता रहता है”।
“कोई ई-मेल मिलने से भी काम चल जायेगा। क्योंकि ई-मेल मे भी तो राजा का एड्रेस
रहेगा ही”।
भुआ उठ कर भीतर गई। थोङी देर बाद बाहर आकर पूछा -“ अजी, राजा की चिठियों वाली बक्सा
की चाबी आपने कहां रख दी”
“मै.मै.मैने तो कहीं नही रखी”।
“उस दिन राजा का पत्र पढ कर आप ही ने तो बक्सा मे रख कर ताला लगाया था”।
“आजकल ये बहुत भूलते हैं। भूल जाना इनकी आदत सी हो गई है”।
“छोङो मै ही ढूंढता हूं, तुम बैठो”।
मैने मन ही मन सोचा, न मालुम चाबी की तलाश करने मे कितना समय लग जाये। ऑफिस का भी
समय हो रहा है। यह सोच कर मैने कहा - “अच्छा, कोई बात नहीं। ऐसा करें, आप ढूंढ कर
रखें। मै कल आकर ले जाउँगी”।
“नहीं नहीं तुम्हे इतने से काम के लिए फिर आने की आवश्यकता नहीं, मै शाम को खुद ही
दे आउँगा। बहुत दिनो से तुम्हारे घर जाना ही नही हुआ। इस बहाने तुम्हारे घर भी हो
आउँगा।“
शांतनु को गये तीन माह गये। इस बीच उसने मेरा कर्ज भी चुका दिया। उसके पत्र से
मालुम हुआ कि उसने खुद अपने ही बल बूते पर सब कुछ मैनेज कर लिया था। अमेरीका जाने
के एक माह तक तो उसके पत्र आते रहे और कभी कभी फोन पर भी बात कर लिया करता था। बाद
मे उसने मुझे ई-मेल एड्रेस तैयार करने के लिए कहा क्योंकि ब्यस्तता के कारण उसे समय
नहीं मिलता। मुझे इसकी कोई आवश्यकता तो नहीं थी लेकिन शांतनु की सुविधा के लिए मुझे
ई-मेल की ब्यवस्था करनी पङी। आजकल वह मुझे ई-मेल करता है लेकिन अपने पिता को पत्र
लिखने का तो वह समय निकाल ही लेता है और उसकी प्रतिलपि कभी कभी मुझे भी ई-मेल कर
देता है। अपने एक पत्र मे भाई साहब को सलाह देते हुए लिखा कि पुराने मकान की मरम्मत
पर ज्यादा खर्च न करना ही उचित होगा। दो साल बाद लौट कर वह कोई अच्छी सी जमीन खरीद
कर तीन कमरों वाला सब तरह से सुविधायुक्त एक नया मकान बनवा लेगा। अपने बेटे के इस
तरह के संकल्प से एक शिक्षक पिता को कितनी खुशी हुई होगी इसकी सहज ही कल्पना की जा
सकती है।
आजकल पता नहीं बरुआ क्यों मुझे देखते ही आंखे चुरा लेते है। पङोसी कहतें हैं कि
बरुआ बहुत ईर्षालु है। दूसरों के बच्चों के विदेश जाने की खबर से उन्हे कोई खुशी
नहीं बल्कि ईर्षा ही होने लगती है। लेकिन सुनी सुनाई बात पर मै यकीन नहीं करती। कोई
मुझसे बातचीत करता है या नही इसको लेकर भी मै कभी परेशान नहीं होती। दर असल इन
फिजूल बातों को सोचते रहने के लिए वक्त और दिमाग का खाली रहना जरुरी है। अपना ऑफिस,
घर संसार, बच्चों की देखभाल, उनका होमवर्क और इसके अलावा उपेक्षा न किये जाने वाली
सामाजिकता को छोङ कर दूसरी बातों के बारे मे सोचने का जी भी नहीं करता। पर मेरे मन
मे भवेन बरुआ के प्रति नाराजगी जरूर है। राजा का पता-ठिकाना देने का आश्वासन देकर
भी आज तक न देने का क्या अर्थ है। शायद यह सोच कर नहीं दिया हो कि शांतनु उसे (राजा
को) बेवजह परेशान करेगा। लेकिन अब पता-ठिकाना न मिलने का कोई अफसोस भी नहीं रहा।
शांतनु को गये भी छः साल से ज्यादा हो गये। राजा के पते-ठिकाने की शांतनु को कोई
आवश्यकता भी नहीं रही। क्योकि उससे होने वाली बात चीत से पता चला है कि शांतनु ने
स्वयं ही अपनी सारी ब्यवस्था करली है। लेकिन मै यह सोच कर हैरान हूँ कि अब बरुआ
मुझे देख कर भी अनदेखे भाव से मुँह क्यों चुराते हैं। सच कहा जाये तो बरुआ के प्रति
मेरा इम्प्रेसन अच्छा नही रहा।
शांतनु के अमेरीका जाने के बाद भाई साहब अचानक मेलिनाग्रस्त हो गये जिसके चलते हम
सभी बङे परेशान थे। शांतनु को इसकी खबर देने के लिए मैने ही मना कर दिया था।
क्योंकि दूर बैठे और उस पर भी न आ पाने की विवशता के कारण हर किसी के लिए ब्याकुलता
का कारण हो सकता है। मै भाई साहब को चिकित्सा के लिए गुवाहाटी ले आई और दो तीन दिन
तक नर्सिंगहोम मे रखने के बाद उनकी हालत मे सुधार आ गया। मैने उनको कुछ दिन तक
गुवाहाटी मे ही ठहरने की ब्यवस्था करली। भाई साहब के ज्यादा आग्रह करने पर शांतनु
को सूचना इस खबर के साथ देदी कि वे अब बिल्कुल स्वस्थ हैं चिंता की कोई बात नही है।
भाई साहब और कुछ दिन मेरे पास ही रहेंगे। तुम भाई साहब के लिए कोई टेंसन न लेना।
भाई साहब अब बिल्कुल स्वस्थ हैं।
भाई साहब को अपने घर पर रखने के कारण मुझे परेशानी तो जरूर हो रही थी लकिन कोई बुरा
भी नही लग रहा था। मेरी परेशानी को महसूस कर कभी कभी भाई साहब घर लौट जाने की बात
भी बीच बीच मे किया करते या कभी कभी भाभी को मेरे काम मे हाथ बंटाने के मकसद से ले
आने की बात भी करते। लेकिन मुझे यह अच्छी तरह मालुम है कि भाभी यदि आना भी चाहे तो
नही आ सकती। घर पर एक जर्सी गाय है। स्कूल-कॉलेज जाने वाले बच्चों को खिला पिला कर
भेजना पङता है। दूसरी बात भाई साहब के स्वभाव को मै अच्छी तरह जानती हूँ। घर के
बाहर का काम और ट्यूशन कर घर आने के बाद वे तिनका भी नहीं तोङते। वे एक तरह से
पुराने जमाने के पुरुष की तरह ब्यवहार करते हैं। उन्हे थोङी थोङी देर के बाद चाय
बना कर देनी पङती है। यहां तक कि जूता,मौजा और कमीज तक भाभी को ही ढूंढ कर देना
पङता है। इस तरह भाभी को भाई साहब के काम मे ही काफी ब्यस्त और परेशान रहना पङता
है। इस तरह के घर का सारा काम करने का बाद उन्हे समय ही कहाँ मिलता है। य़द्यपि भाभी
कभी कोई शिकायत नही करती लेकिन उनका थका सा क्लांत चेहरा सब कुछ ब्यक्त कर देता है।
वही भाई साहब अस्वस्थ होते हुए भी घर के काम मे मेरी सहायता करने की कभी कभी कोशिश
करते हैं। शायद मेरे स्वामी को घर के काम में हाथ बंटाते देख कर वे संकोचवश काम कर
देते होंगे। लेकिन मुझे मालुम है अपने घर मे वे भाङ भी नही झौंकते। पर यहां चाय के
कप-प्लेट वास-बासिन मे रख आते हैं और कभी कभी तो धो कर भी ले आते हैं। मुझे उस समय
तो बङी हंसी आती है जब वे यह कर घर जाना चाहते हैं कि उनके घर पर न होने के कारण
तुम्हारी भाभी को अकेले काफी परेशानी उठानी पङती होगी। लेकिन कुछ भी हो भाई साहब के
इस सोच मे भी गृहस्थ जीवन का एक दर्शन छुपा हुआ है और उसी दर्शन के कारण भारतीय
समाज का गृहस्थ जीवन टिका हुआ है।
भाई साहब का मेरे घर पर ठहरने से मेरे लिए खुशी का एक अन्य कारण भी है। शाम को
फुरसत के समय बरामदे मे बैठने के बाद जब हम लोगों के मन पर अतीत की स्मृतियां एक एक
कर आती है तो हम दोनो को ही वर्णातीत आनंद की अनुभूति होती है। उस समय अब तक
विस्मृति के गर्भ मे तिरोहित और बिखरी हुई टुकङे टुकङे स्मृतियों का जैसे पुनर्जन्म
होने लगता है। सोचती हूं आज के ब्यस्त जीवन की आपा धापी मे मनुष्य के पास अपने अतीत
को रिव्यू करने की न तो वैसी मानसिता है और न फुरसत। पर आज मुझे लगता है हम दोनो ही
अपने अपने अतीत मे खो गये हैं। बचपन मे खाये जाने वाले साधारण से ब्यंजन, मां के
बनाने के तरीके से ब्यंजन बनाने की कोशिश मै भी किया करती लेकिन वह जायका नही आता।
शाम को बरामदे मे बैठ कर इन्ही स्मृतियों में खोये रहना हम दोनो को ही अच्छा लगता।
स्वस्थ होने के बाद भाई साहब चले जायेंगे फिर अतीत की स्मृतियों की यह ‘रिकेप’
स्मृति पटल पर शायद ही आ पाये। भाई साहब को भी यह एकांत भाव जनित मेरा सान्निध्य
शायद ही मिले।
मेरे घर पर आने के बाद अङोस पङोस के लोगों से उनकी अच्छी जान पहचान हो गई है। इसलिए
कई लोग उनकी मिजाजपुर्सी के लिए जब तब आते भी रहते हैँ और इस बहाने मेरे घर पर
अच्छा खासा जमघट लगा रहता है। भाई साहब को किताबें पढने का बहुत शौक है। मैने महसूस
किया है कि मेरे प्रतिवेशियों के साथ बातचीत करके उन्हे अच्छा लगता है। कभी कभी तो
उनके बीच जारी बात चीत तीन चार घंटे तक चलती रहती है। पोस्टमोडर्निजम से लेकर
आधुनिक पोलिटिक्स तक और जर्सी गाय से लेकर क्रिकेट तक बातों का दौर चलता रहता है।
वार्तालाप के विषयों की उनके पास कोई कमी नहीं रहती। भाई साहब का तो कहना ही क्या ?
यहाँ अत्यंत खुश हैं। ऐसा लगता है समस्या जर्जरित उनके जीवन को एक तरोताजा एनर्जी
प्राप्त हो गई हो।
मेरे दिमाग मे यह विचारधारा चल ही रही थी कि एकाएक हमारे घर बरुआ-दम्पति की
उपस्थिति से हम सब हैरान हो गये। उस दिन रविवार था। हम सभी घर पर ही थे। उनकी
कुशल-क्षेम पूछने के बाद मै चाय-वाय बनाने अंदर चली आई। इतने मे फिर कॉलिंग बेल की
आवाज सुनाई पङी। कुछ तो भाई साहब जब से यहाँ रहने लगे हैं तब से घर आने जाने वालों
का तांता लगा रहता है। मै कुछ झुंझलाई सी बाहर आई। सफेद सा शर्ट और उस पर काली टाई
तथा काली ही पैंट पहने एक स्मार्ट से दिखने वाले लङके ने अंग्रेजी बोलते हुए मेरे
पति का नाम पूछा। नाम बताने के बाद उसने बाहर खङी गाङी की ओर कुछ संकेत किया।
युनिफॉर्म पहने दो लङके एक ट्रे मे कुछ पैकेट से लेकर भीतर चले आये। लङके ने मेरे
सामने एक कॉपी बढाते हुए कहा- “कृपया इस पर अपने साइन कर दें। मै कुछ भी न समझ सकी
और पूछा-- “क्या है यह सब और कहाँ से आया है, किसने भेजा है”? मैने एक साथ कई सवाल
पूछ डाले।
लङके ने उत्तर देते हुए कहा--“होटल लुईत ईन्टरनेशनल से। आप लोगों का कोई लङका
अमेरिका मे रहता है”?
“हाँ, रहता है, पर इससे क्या”? मैने लगभग हैरानी के साथ नर्वस सी होते हुए पूछा।
“वैसी कोई बात नहीं है। उसने ही ये सब भेजा है। उनके पिताजी जब तक आपके घर रहेंगे
तब तक लंच और डिनर आपके यहाँ भेजते रहने का हमे ऑर्डर दिया गया है। आपके यहाँ कोई
पेसैंट है उनके लिए एक डायटियशन की ब्यवस्था की गई है। उसी के परामर्श के अनुसार
पेसैंट का खाना-पीना आपको यथा समय मिलता रहेगा आप चिंता न करें। मोस्ट प्रोबेबली
आपके यहां एक नर्स आ कर रहेगी। इस बीच उसने कई नर्सों से सलाह मसविरा भी किया है”।
यह सब सुन कर मै बङी हैरान हो गई। मेरी तो बोलती बंद हो गई। फिर मैने कुछ साहस जुटा
कर पूछ ही लिया-- “लेकिन इतनी सारी ताम-झाम का खर्चा-पानी”?
” क्रेडिटकार्ड के द्वारा सारा पैमेन्ट हो चुका है इसकी चिंता आप न करें। बस, हमे
तो यह बतला दें कि लंच और डिनर कितने दिनो तक भेजना होगा।“आखिर बङी हैरानी के साथ
लङके की कॉपी पर साइन कर दिया। हाँ, आपके लिए एक मेसेज भी भेजा गया है। यह कह कर एक
कम्युटराज्ड कागज मेरी ओर बढा दिया। ‘थैंक्यु’ - कह कर लङका चला गया और उसके साथ
आये लङकों ने भी सामान कीचन मे रखा और सलाम दे कर वे भी चले गये। ड्राइंग रुम मे
घटित इस सारे वाकये को देख कर बरुआ-दम्पति और भाई साहब बङे विस्मित हो रहे थे। मै
शांतनु का मेसेज पढने लगी,- “भुआ, बुरा न मानना। आपने पिताजी के लिए जो कुछ भी किया
है वह मै उनका बेटा हो कर भी नही कर पाया। थोङी सी मदद करने की कोशिश की है, मै
हमेशा आपके साथ हूँ - शांतनु।“ मेसेज पढ कर मै अपने आँसू रोक न सकी। भाई साहब
शांतनु का पत्र पढ कर बङे गौरवान्वित हो रहे थे। “देखो तो, लङका हमारे साथ भी नहीं
है फिर भी होटल से हमे खाना खिला रहा है। हमारा कितना बङा सौभाग्य है। लेकिन फिर भी
उसे खबर देदो- “होटल का कीमती खाना हमे हजम नहीं होता।“
अब तक बरुआ-दम्पति सब कुछ बङी हैरानी और उदासी के साथ देख सुन रहे थे। हठात् आगे बढ
कर बरुआ ने गदगद हो कर भाई साहब को प्राय रुंधते गले से कहा - “आप बङे भाग्यशाली
हैं। सच बङे भाग्यवान पिता हैँ। ऐसे होनहार बेटे के पित्रृ-प्रेम और आदर को ठुकराना
अच्छा नही। हो सकता है बाद मे पश्चाताप करना पङे। अब मुझे ही देखो, मेरे बेटे को
विदेश गये पांच साल हो गये लेकिन आज तक उसकी कोई खबर नहीं। सुना है उसने वहां किसी
विदेशी लङकी से शादी कर अपना घर भी बसा लिया है। हमारे तो गुजारे का भी कोई ठिकाना
नहीं है। पुस्तैनी घर को बेच कर बैंक मे फिक्सड डिपोजिट कर उसी से जैसे तैसे गुजारा
करने का निर्णय लिया है। उस दिन राजा के पते-ठिकाने का न मिलना तो हमारा बहाना
मात्र था। कहां से देते। राजा के अमेरीका जाने के एक दो माह तक तो खबर मिलती रही।
लेकिन अब तो हमारे पास एक लम्बे अरसे उसकी कोई खबर ही नही है। अपनी मनोब्यथा कहां
तक कहें। पांच साल से उसकी खबर का इंतजार कर रहे हैं। पर सिर्फ निराशा और
निराशा.........। उस दिन तुम राजा का पता ठिकाना लेने गई। पता ठिकाना देने मे क्या
एतराज हो सकता है। लेकिन हो तब न दें। आज हम अपनी मनोब्यथा चाह कर भी नहीं छुपा सके
और इसलिए सारे झूट पर से पर्दा उठा देना हमारी मजबूरी है। लोगों को कब तक झांसा
देते रहें। बरुआ-दम्पति इसके बाद पल भर के लिए भी नहीं रुक पाये। उनको जाते जाते
देखा बरुआनी अपने आंचल के एक छौर को मुँह मे दबा कर भी क्रंदन से डबडबाती आँखो को
चाह कर भी नहीं छुपा सकी। इतने मे सारा नजारा बदल गया। हमने देखा घर के बाहर
रेडक्रोस वाली एक गाङी से बिल्कुल धवल वस्त्रधारी एक नर्स तेज कदमो से चलते हुए
हमारी तरफ आ रही है। उसे देखते ही भाई साहब ने भौचके से हो कर सहमते हुए मेरी तरफ
अपना हाथ बढा दिया। मैने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा कर उनका हाथ पकङा था। लेकिन फिर
भी कम्पित स्वरों मे कहा-- “जरा और जोर से पकङो।