कथा सत्यनारायण की
दिव्या माथुर
आज बुद्घ पूर्णिमा का दिन था और एक अर्से के बाद सुशीला सत्यनारायण का पाठ करने को
उद्यत हुई थीं। जितनी शिद्दत से वह पूजा कर रही थीं, उतनी ही तन्मयता से उनकी बेटी
रूपा अपनी भवों को चिमटी से नोचे चली जा रही थी। मजाल है कि कथा का एक शब्द भी उसके
कानों से गुजरा हो। उन्होंने बड़ा प्रयत्न किया कि वह रूपा की ओर न देखे किंतु उनकी
सारी इंद्रियाँ मानो रूपा की चिमटी पर केन्द्रित थीं। सामने बैठा था उनका पुत्र,
राकेश, जिसका दिमाग अवश्य दुकान की किसी उधेड़ बुन में उलझा था। अपने पिता की तरह,
वह बार बार अपने माथे को छू रहा था। उनके ᅠदिवंगत पति, नवीन को जब भी जब कोई चिंता
सताती थी, वह बार बार अपने माथे को उंगलियों से छूते रहते थे। ऐसे में सुशीला उनका
हाथ पकड़ लेती और पूछती कि उन्हें क्या परेशानी थी। छोटी छोटी बातों से भी परेशान
रहता है राकेश भी। अरे क्या फ़र्क पड़ता है यदि दुकान साढ नौ बजे न खुलकर एक दिन
ग्यारह बजे खुल जाए।
राकेश के साथ बैठी थी उसकी नवयौवना पत्नी, निधि, जो शायद सोच रही थी कि कब कथा का
पाँचवा अध्याय आरंभ हो तो वह प्रसाद लगाने की तैय्यारी करे। अपनी उंगलियों को दरी
पर टिकाए वह घुटनों के बल पर बैठी थी, मानो रैडी स्टैडी गो के होते ही वह जल्दी से
उठ के भाग पाए। सुशीला कुछ करने या कहने की सोचती ही है कि निधि को पता लग जाता है
कि क्या करना है। जैसे अपने मालिक की ओर नज़र जमाए कुत्ता जानता है कि गेंद किस दिशा
में जाएगी। उसे हर काम की जल्दी रहती है, उसका बस चले तो कल सुबह का नाश्ता आज ही
बनाकर रख दे।
स्वयं सुशीला का ध्यान बार बार कथा से उचट रहा था। कभी वह नवीन के बारे में
सोचने लगतीं तो कभी बच्चों के उखड़े व्यवहार के बारे में। बार बार वह अपने ध्यान को
खींच कर कथा पर लातीं, किंतु वह कुछ ही क्षणों में फिर कहीं भटक जाता। दो ही साल
पहले तो नवीन की अचानक मौत हो गयी थी और तब से पूजा पाठ में उनका मन बिल्कुल नहीं
लगता था। सुबह जब निधि ने बताया कि आज पूर्णिमा है तो वह शायद उस ही की खातिर
सत्यनारायण की कथा करने को मान गईं। घर में सब कुछ था किंतु निधि बाज़ार से पूजा का
सारा सामान खरीद लायी कि घर में रखी चीज़े तो सब झूठी हैं। इतनी श्रद्घा और निष्ठा
तो सुशीला में स्वमं भी नहीं थी। उसके इसी आचार व्यवहार से तो वह निधि पर रीझ गईं
थीं।
'श्री क्रष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेवा,' हर अध्याय के बाद संपुट
लगाकर पढ़ने में बहुत समय लग रहा था। किंतु निधि को तो मानो कीर्तन करने का मौका ही
चाहिए था। सुशीला का बस चलता तो वह एक बार में ही जल्दी से कथा पढ़ डालतीं ताकि
किस्सा खत्म हो और सबको छुट्टी मिले। क्या फ़ायदा जब किसी का मन ही नहीं है कथा
सुनने का तो।
'आज लकड़ी बेचने से मुझे जो भी धन प्राप्त होगा, उससे मैं सत्यनारायण का व्रत
करूंगा। ये विचार कर लकड़ियाँ सिर पर रख वह उस नगर में गया, जहाँ धनवान लोग रहते थे।
उस दिन लकड़हारे को लकड़ियों का दाम दूना मिला।'
राकेश की दबी दबी हंसी सुनकर सुशीला ने सिर उठाया तो देखा कि वह निधि से कह रहा था,
'धनवानों के शहर में जाएगा तो उसे अच्छे दाम मिलेंगे ही। ये बात उसके दिमाग में
पहले क्यों नहीं आई?'
माँ को अपनी ओर देख वह चुप हो गया। भँवे नोचनी छोड़ रूपा ने भाई और भाभी पर एक चुभती
नज़र डाली और फिर माँ की ओर देखा मानो कह रही हो कि उन्होंने ही बहु बेटे को सिर पर
चढ़ा रखा है।
राकेश की ही तरह नवीन भी चाहे कथा का कितना ही मज़ाक न उड़ाते रहे हों किंतु कथा के
समय हमेशा पत्नी के साथ बैठते थे और संपुट गाने में भी सुशीला का साथ अवश्य देते
थे। प्रसाद खाते समय वह हमेशा कहते थे कि कथा तो सुनी ही नहीं, केवल यही सुना कि
किसने किससे सुनी, किस किसका कैसे कैसे सत्यानास हुआ। सुशीला स्वयं भी यही सोंचती
थीं किंतु भगवान के डर के मारे वह कभी कुछ कहती नहीं थी।
'लीलावती पति के साथ आनंदित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत हो गई और भगवान कि कृपा से
गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसके एक श्रेष्ठ कन्या का जन्म हुआ'। तीसरा अध्याय
अभी शुरु ही हुआ था कि सुशीला को नवीन की याद इतने ज़ोर से सताई कि यकायक वह चुप हो
गईं। नवीन होते तो खूब चुटकी लेते कि 'सांसारिक धर्म में पहले ही लीन हो जाते तो अब
तक दसियों बच्चे हो गए होते, ये सांसारिक बातें भी क्या भगवान को ही बतानी होंगी?'
अथवा 'दसवें महीने में नहीं तो क्या कन्या की जन्म बारवहें महीने में होता?' सुशीला
को लगा जैसे कि किताब के पन्नों पर सियाही फैल गई हो। शब्द गड्डमड्ड हो गए।
'मम्मी जी, मैं पढूँ क्या?' निधि ने उनकी धुंधलाई आँखों को देख कर पूछा तो उन्हें
सुधि आई और वह आंखे पोंछ कर फिर पढने लगीं।
'पुत्री तू रात भर कहाँ रही और तेरे मन में क्या है?' पंडित जी कथा के जब इस वाक्य
पर पहुंचते तो नवीन पत्नी को हल्के से छूकर शरारती अँदाज़ में आँखों ही अँखों में
पूछते, 'तेरे मन में क्या है?' तो सुशीला के गाल कान तक लाल हो जाते।
पिता की तरह ही राकेश भी कथा के भिन्न अध्यायों पर टिप्पणियाँ कसने से बाज़ नहीं
आता। सास की तरह ही आँख तरेर कर निधि पति को ऐसा कहने से वर्जित करती है, 'भगवान
नाराज़ हो जाएंगे।' बवंडर सी यादें उन्हें झकझोर के रख देतीं हैं। सुशीला को अच्छा
भी लगता है और बुरा भी। बहु बेटे के संबंधों को इस नज़र से देखना क्या उचित है, यहि
सोच के वह शर्मिंदा भी होती रहती हैं।
'हे दुर्बुधि तूने मेरी आष्रुरु के विरुद्घ जाकर बार बार कष्ट उठाया है।' राकेश
बुड़बुड़ाया, द्यलुक्स लाइक पर्सनल वैंडेट्टा टु मी। ईसा मसीह को देखो, एक बार माफी
मांग लो तो वह झट माफ कर देते हैं और एक हमारे सत्यनारायण स्वामी हैं कि बेचारे के
पीछे हाथ धो कर ही पड़ गए।' ᅠ
कहीं सत्यनारायण स्वामी के क्रोध का निशाना ही तो नहीं बन गए थे नवीन। जब वह मत्यु
शैय्या पर थे तो सुशीला ने किस देवी देवता को याद नहीं किया, कौन सा व्रत था जो
उन्होंने नहीं बोला। ज़मीन पर गिर गिर कर पति की ओर से बार बार क्षमा मांगी, 'हे
सत्यनारायण स्वामी, नवीन की त्रुटियों को क्षमा करो, उन्हें बचा लो, मैं जीवन भर
तुम्हारी कथा करूंगी।' किंतु सत्यनारायण स्वामी ने उनकी एक नहीं सुनी।
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कसी तरह चौथा अध्याय आरंभ ही हुआ था कि फ़ोन की घंटी बजी। रूपा को तो मानो बहाना ही
मिल गया वहाँ से उठने का। फ़ोन पर किसी से उसकी देर तक हा हा ही ही चलती रही। सुशीला
को लगा कि कहीं उन्हें दिल का दौरा ही न पड़ जाए। इतना क्रोध उन्हें पहले कभी नहीं
आता था। इन्हीं लच्छनों की वजह से ही तो रूपा को कोई ढंग का वर नहीं मिल पाया था।
वैसे ही लोग धड़ाधड़ अपनी बहुएं भारत से ला रहे हैं। राकेश और रूपा यहाँ रच बस गए हैं
और लोगों के भारत से बहु या दामाद लाने के सख्त खिलाफ़ हैं। भारत से आए मेहमानो के
पहनावे और उच्चारण का जब वे मज़ाक उड़ाते हैं तो सुशीला का मन जलके कोयला हो जाता है।
राकेश और रूपा के मना करने के बावज़ूद वह स्वयं अपनी बहु भारत से ही लाना चाहती थी।
भगवान का लाख लाख शुक्र है कि निधि को देखकर राकेश मान गया, नहीं तो वह अपनी किसी
काली पीली गर्ल फ्रैंड से ब्याह कर लेता।
हालांकि निधि कितनी प्रसन्न या अप्रसन्न थी, कौन जाने। राकेश का रोज़ रोज़ पब में जा
बैठना और देर गए घर लौटना, उसे अवश्य खलता होगा। सुशीला बहु का बहुत ध्यान रखती
हैं। उसे व्यस्त रखती हैं कि शाम को उसे राकेश की कमी महसूस न हो। कभी हिंदी फिल्म
दिखाने ले जाती हैं ये कहकर की यहाँ के बच्चे तो हिंदी फिल्म देख ही नहीं सकते तो
कभी शौपिंग पर किंतु निधि को बेकार में दुकानों में भटकना पसंद नहीं है। अब तो उसने
ड्राइविंग टैस्ट भी पास कर लिया है किंतु जाए तो वह कहाँ जाए? 'हे सत्यनाराण
स्वामी, निधि को जल्दी से एक पुत्र या पुत्री दे दो तो ये घर बस जाए।' शायद भगवान
उसकी इस बार सुन ही लें। वह दूनी श्रद्घा से कथा पढने लगी।
आरती का समय हो गया था किंतु फोन पर रूपा की ही ही जारी थी। सुशीला ने निधि को
इशारे से रूपा को बुला लाने को कहा। यह उनकी सबसे बड़ी भूल थी।
'ब्लडी हैल।' रूपा के क्रोध में बोले गए केवल दो शब्द काफी थे। आँखों में बरसात
समेटे निधि लौट आई। सुशीला का मन हुआ कि जाके अभी रूपा को घर से बाहर कर दे किंतु
यह समय क्लेश के लिये नहीं था। निधि और सुशीला के मना करने के बावज़ूद राकेश उठा और
गुस्से में रूपा से बोला, 'हाऊ डेयर यू? व्हाट डू यू थिंक यू आर? गैट आऊट आफ़ आवर
हाऊस, नाऊ , बिफोर आई थ्रो यू आउट।'
'दिस इज़ माई फक्किंग हाउस ऐज़ वैल।' रूपा ने चिल्ला कर जवाब दिया। निधि दौड़ कर राकेश
को मना लाई। सुशीला के हाथ पांव छूट गए, लगा कि बस अब और उनसे पूजा नहीं हो पाएगी।
पूजा की थाली उन्होंने निधि को थमा दी और स्वमं वह दीवार से लगे हीटर से टिक कर बैठ
गईं।लगा कि बिस्तर में जाके लेट जाएं और फिर कभी न उठें। जब तब उनके ज़ख्मों को
उधेड़ती रहती है रूपा भी।
निधि सहमी सी आरती गा रही थी, उसकी आवाज़ मानों उसके गले में घुट गई हो। सुशीला
स्वमं को कोसे जा रहीं थीं कि न वह उसे निधि को बुलाने भेजतीं और न ही निधि का
अपमान होता। निडर और ढीठ सी रूपा भी आ खड़ी हुई। अब वह अपने नाखून फ़ाइल कर रही थी।
रेती से घिसे जा रहे नाखूनों की आवाज़ आरती के समवेत स्वरों से कहीं ऊंची थी।
कब आरती हुई, कब प्रसाद बंटा, और कब रूपा फोन पर वापिस चली गई, उन्हें कुछ ध्यान
नहीं। 'कमबख्त' शब्द उनके दिमाग में घूमे जा रहा था। इस गाली का अर्थ जानतीं थीं वह
और इस शब्द का इस्तेमाल करने कि लिए दूसरों को रोकतीं भी थीं।
नवीन होते तो शायद उनकी लाड़ली इतनी बद्तमीज़ न होती। न जाने रूपा के दिमाग में यह
क्यों बैठ गया था कि सुशीला सिर्फ राकेश को ही प्यार करती हैं। उसे तो वह सदा
डांटती ही रहती हैं किंतु कौन माँ अपनी बेटी को घर का काम काज सिखाने के लिये
डांटती डपटती नहीं? खैर, सिवा पढाई के, रूपा ने किसी काम में कोई रुचि नहीं दिखाई।
बुनाई कढ़ाई तो दूर रही, रसोई के किसी काम में उसका मन कभी नहीं लगा। पति के घर जाकर
वह फूहड़ ही कहलाएगी और बात घूम फिरकर वहीं आ जाएगी कि माँ ने कुछ नहीं सिखाया। वे
क्या जाने कि माँ ने क्या क्या नहीं झेला कि बेटी को सुलक्षा बना पाए। निधि जैसी
सुशील बहु लाकर सुशीला ने सोचा था कि रूपा कम से कम उसे देख कर ही कुछ सीखेगी किंतु
राकेश के ब्याह के बाद तो रूपा और भी बद्तमीज़ हो गई। जितना निधि उसकी खुशामद करती,
रूपा उतनी ही उस से ख़फ़ा होती। बेचारी निधि को लगता कि कहीं न कहीं रूपा जीजी उसी से
खफ़ा हैं।
कल ही तो निधि बड़े शौक से अपनी ननद के लिए गुलाबी साड़ी लाई थी। सुबह सुबह उसने
प्यार से रूपा से आग्रह किया था कि वह आज कथा में वह साड़ी पहन ले। 'हूँ' कहकर वह
साड़ी को सोफ़े पर ही छोड़ कर अपने कमरे में चली गई थी। ले देकर एक ही तो भाभी है, जो
ननद पर अपनी जान भी देने को तैयार रहती है किंतु सुशीला तरस गईं कि एक दिन वह दोनों
को गलबहियाँ डाले देखें।
रूपा के सुबह उठते ही निधि उसे चाय देती, क्या नाश्ता बनाए, पूछती पर रूपा सीधे
मुंह जवाब तक नहीं देती। कभी कभी गुस्से में 'लीव मी एलोन' कहकर निकल जाती। यहाँ की
कोई लड़की होती तो कब का बोलना छोड़ देती। किंतु निधि न जाने किस मिट्टी की बनी थी कि
रो धोकर फिर द्यरूपा जीजी रूपा जीजी' कहते नहीं थकती। पिछली राखी पर ही निधि ने
कितने उत्साह से त्योहार मनाने की सोची थी। क्योंकि शायद उसके अपना तो कोई भाई नहीं
है नहीं। रूपा के लिए वह वैंबली जाकर एक बढिया सी राखी और ढेर सारी मिठाई खरीद कर
लाई थी।
राकेश को तो रूपा ऐसे देखती कि जैसे उसे कच्चा ही चबा जाएगी। ऐसी भी क्या दुश्म्नाई
और कोई कारण भी तो पता लगे। देर रात तक वह थाली सजाए बैठी रही कि रूपा जीजी आएंगी
तो अवश्य प्रसन्न हो जाएंगी। न खुद कुछ खाया न ही राकेश को खाने दिया। उसे पब भी
नहीं जाने दिया। सुशीला को बड़ा अच्छा लगा कि बेटा बहु की सुनने लगा था। महारानी रात
के एक बजे पधारी। तब तक राकेश बुड़बुड़ करता सोने चला गया था और रूपा की हिम्म्त नहीं
हुई थी कि उसे और रोकती।
'रूपा जीजी, ज़रा रुकिए, मैं इन्हें अभी बुला कर लाती हूँ। राखी तो बांध दीजिए।'
'ब्लडी हैल, राखी, व्हाट राखी?' निधि का आग्रह ठुकराती रूपा सीधी अपने कमरे में चली
गई।
सुबह नाश्ते के वक्त सुशीला ने रूपा को बताया तो था कि आज राखी है और ये कि समय पर
घर आ जाना किंतु शराब के नशे में उसे घर का ही पता याद रहा, वही बहुत था। सुबह
नाश्ते के वक्त भाई बहन का घमासान युद्घ हुआ। लंदनी गालियों का ऐसा आदान प्रदान हुआ
कि आंखे बंद कर निधि ने अपने कान ढक लिए।
जब सुशीला रूपा की शादी पीटर से भी करने को मान गई तो सुना कि वह रूपा की सहेली के
साथ घूम रहा था। रूपा कौन सी कम थी। वह उस सहेली के ब्वाय फ्र.ैंड के साथ घूमने
लगी। घूमने क्या लगी, उसके साथ पैरिस में छुट्टिया भी मना आई। सुशीला की पड़ोसन
नइमा, जिसे जहाँ भर की खबर रहती है, बता रही थी कि रूपा सलीम के साथ किंग्सबरी वाले
इंडिअन पब में रोज़ जाती है।
रूपा सैंट्रल मिडलसैक्स अस्पताल में फार्मेसिस्ट के पद पर काम कर रही थी। पिछले ही
हफ्ते राकेश ने माँ को बताया था कि वह अपने लिए एक फ्लैट देख रही है। सुशीला का दिल
मुंह में आ गया ये सोचकर कि वह क्या कर लेंगी यदि रूपा ने सलीम के साथ घर बसाने का
इरादा कर लिया।
सुशीला और निधि बैल्वयू सिनेमा में गुरु फिल्म देख कर निकली तो एक दूजे का हाथ थामे
रूपा और सलीम उनसे आ टकरे।
'दिस इज़ सलीम, माइ मम एंड सिस इन लॉ।' माँ को देखकर भी रूपा को कोई संकोच नहीं हुआ
बल्कि उन्हें मिलवाते समय वह सलीम के ज़रा और भी निकट आ गई।
'आप हमारे घर आइए न कभी।' हाथ जोड़ कर नमस्ते करते हुए निधि ने के मुंह से निकल गया।
वह घबरा कर अपनी सास की ओर देखने लगी कि घर आने की दावत देकर उसने कही कुछ गलत तो
नहीं कह दिया।
उनके जाते ही निधि बोल उठी, 'मम्मी जी कितना हैंडसम लड़का है न?' यही बात तो सुशीला
की समझ से बाहर थी कि इतना हैंडसम लड़का साधारण सी रूपा के साथ क्या कर रहा है। शायद
रमा ठीक ही बता रही थी कि आजकल मुसलमानो को मस्जिदो में हिदायत दी जा रही है दूसरे
धर्मो के लड़के लडकियो को मुसलमान बनाने से सबाब मिलेगा। कुछ तो बात अवश्य है नहीं
तो काली स्कर्ट और काले टौप में, माथे पर बालो की भद्दी लटे लटकाए, एक साधारण नाक
नक्श वाली लड़की को भला कोई हैंडसम लड़का क्यो घुमाएगा। सलीम को शायद पता है कि रूपा
के पास पैसे की कोई कमी नहीं और अब तो वह फ्.लैट भी लेने जा रही है। आजकल के लड़के
तो बस मुफ्.त में रहना चाहते हैं। आज सुबह जब निधि ने सत्यनारायण की कथा की बात कही
तो सुशीला शायद इसीलिए फटाफट मान गई कि शायद उनकी ये दुविधा सत्यनारायण ही हल कर
पाए
.
रूपा और सलीम के रिश्ते को लेकर राकेश उबल ही पड़ा था। सुशीला ने कभी सपने में भी
नहीं सोचा था कि भाई बहन की ऐसी तक़रार होगी। ऐसी ऐसी अंग्रेज़ी गालियों का आदान
प्रदान हुआ कि सास बहु बाहर बगिया में जा बैठी।
'मम्मी जी आप परेशान नहीं होइए, कहीं आपका ब्लड प्रैशर न बढ़ जाए।' परेशान निधि
उन्हें सांतवना दे रही थी और वह सोच रही थी कि चलो अच्छा ही हुआ कि बच्चे हिंदी
नहीं बोलते। कम से कम हिंदी तो बच गई अपमानित होने से। टी वी पर सुनती है कई भद्दी
गालियाँ और सुनती है लोगो को हंसते हुए जैसे कि ये बहुत मज़े की बात हो। कोई फिसल
जाता है तो लोगों को बड़ा आनंद आता है। सुशीला को यहाँ कि संस्कृति कभी समझ नहीं आई।
नाले में रहने वाले बच्चे कीचड़ से कैसे अछूते रह सकते हैं। धर्म कर्म के नाम पर तो
युवा काटने को दौड़ते हैं। क्या सचमुच कलयुग आ गया है, धर्म क्या धरती से उठ जाएगा।
किंतु पोप की मृत्यु पर कितने युवा इसट्ठे हुए जैसे कि सीमा तोड़ कर समंदर शहर में आ
घुसा हो। किंतु वह यह भी देखतीं हैं कि उसकी सहेलियों के बच्चे कैसे सुशील हैं आंटी
जी और आपा कहकर अदब से बात करते हैं। उसके अपने बच्चे क्यों नहीं सीख पाए ये अदब,
भारत की संस्कति।
बाथरूम जाने के लिये वह अपने शयनकक्ष से निकली तो राकेश की आवाज़ सुनाई दी, 'पुत्री
तेरे मन में क्या है?'
द्यधीरे बोलो, माँ जी सुन लेंगी।' निधि की फुसफुसाहट ने उनके सारे क्लेष धो दिये।
मुस्कराती हुई वह जल्दी से वहाँ से हट गई।
Ms Divya Mathur
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