पानी ने
बेपानी
किया
बेटा ! बेटा ! का रट लगाते शांता की जिह्वा घिस गई ; पर मन नहीं भरा । भरे
भी तो कैसे ? जिस बेटे के लिए उसने दिन को दिन , रात को रात नहीं समझा -
कहाँ से दो पैसे ज्यादा घर में ला सकूँ, जिससे बेटे को सुखी रख सकूँ । इसके
लिए जवानी में शांता ने क्या नहीं किया ? कोयले के बुरादे से गुल तैयार कर पोखर से
मिट्टी लाकर, कलई किये हुए थाली में चूल्हा तैयार कर बेटे को समय पर खाना देकर
स्कूल और कालेज़ की पढाई जो पूरी कराई । रात को जब सब्जी बाज़ार बंद होने पर आता था ,
रात के अंधेरे में, बाज़ार से बची – खुची सब्जियों से छानकर सब्जियाँ लाना , रेशन
दुकान से घंटों कतार में खड़ी होकर चावल – गेहूँ लाना
-- ना जाने उसने उस बेटे को
बड़ा साहब बनाने के ख्वाब में क्या – क्या नहीं किया ।
अगल – बगल के पड़ोसियों से कहते नहीं थकती थी, ’ देखना ! मेरा बेटा जब बड़ा
आदमी बन जायगा , मेरे दिन भी फ़िर जायेंगे । ’ बरसात के महीने में, रात को मसहरी के
ऊपर शांता पोलीथीन बिछाना नहीं भूलती थी । भूलती भी कैसे , बरसात की बूँदें टप – टप
कर बेटे के ऊपर जो गिरतीं । हर दो घंटे में पोलीथीन के पानी को फ़ेंकना, फ़िर सोना
अर्थात दिन भर की दौड़ –धूप व रात को शांता की बदनसीबी शांता को सोने कहाँ दिया कभी
। फ़िर भी शांता खुश थी । बश एक स्वप्न को सहेजे, मेरा बेटा बड़ा आदमी बनेगा; तब मेरी
यह बदसूरत जिंदगी, खुद-ब-खुद सज उठेगी ।
लेकिन
शांता को यह पता नहीं था कि वह जिस स्वप्न में यह ख्वाब देख रही है, उस स्वप्न के
टूटने भर की देरी है और वही हुआ भी । आखिर , स्वप्न कब तक चलता । एक दिन बेटा सचमुच
जब बड़ा होकर , एक आफ़िसर बना, शांता की तकदीर उसके साथ ही बद से बदतर होने लगी ।
त्याग और तपस्या के दिन को याद कर आज भी सुबक – सुबक कर रोया करती है ; इसलिए नहीं
कि मैंने बेटा के लिए इतना त्याग क्यों किया ? वो तो आज भी , तिनका – तिनका को
जोड़कर , उस पर बेटा का नाम लिखती है । कहती है,’ मेरे बाद मेरे पास जो भी है, सब
उसी का तो है ।’ बेटे के के परिवार के खुशी से खुशी , दुख से दुखी होकर जीने वाली
शांता को आखिर आज मान लेना पड़ा कि हर तपस्या का फ़ल तपस्वी को मिले, जरूरी नहीं ।
कभी – कभी सारी जिंदगी की तपस्या भी तकदीर के सामने निष्फ़ल होती है
और वही हुआ भी ।
आज
जब
जिंदगी
की
शाम
ढलने
आई
है,
हर
माँ
की
तरह
शांता
भी
अपनी
जिंदगी
के
बचे-खुचे
दिन
बेटे
के साथ निभाना चाही । फ़ोन पर बातचीत करते हुए शांता ने पूछा,’ बेटा ! क्या तुम्हारे
फ़्लैट में पानी की किल्लत तो नहीं है ( क्योंकि पानी की किल्लत होने की बात, शांता
बेटे के मुँह से कई वर्षों से सुनती आई थी ) ? बेटे का जवाब था,’ क्यों क्या बात है
, तुम तो इस तरह पूछ रही हो, जैसे किल्लत रहने से तुम दूर कर दोगी । शांता बोली,’
नहीं बेटा ! , अब तो तुम बड़ा आफ़िसर बन गया, लाख की तनख्वाह है । तुम चाहो तो अच्छी
जगह , जहाँ पानी की कमी न हो, वैसा फ़्लैट खरीद सकते हो । मेरे पास अब बचा ही क्या ,
जिसे देकर इस परेशानी से तुम्हें निजाद दिला सकूँ । मेरे पास जो कुछ थे गहने, घर,
तुम्हारे पिता के प्रोविडेन्ट फ़ंड के पैसे , सब तो पहले ही निकालकर तुम्हारी पढाई –
लिखाई में लगा दिया । दो बीघे जमीन थे, उसे भी तुम्हें इंजीनियरिंग कालेज में
दाखिला के लिए बेच दिया ताकि तुम कम्प्यूटर इंजीनियर बन सको । अब पेंशन के पैसे हैं
, हम पति –पत्नी के पास और तो कुछ है नहीं । मैं तो इसलिए पूछ रही थी कि अकेले रहते
–रहते जी उब गया; इसलिए सोची , कुछ दिनों के लिए पोते के पास चली जाऊँ । पोते के
पास खेलकर दिन बीत जायेंगे । तुम जब शाम को घर लौटोगे, तो तुम्हारे साथ बैठकर ,
तुम्हारे कंधों का सहारा लेकर , जिंदगी के सफ़र को कुछ आसान कर लूँगी । बहु को भी
देखे बहुत दिन बीत गये । मेरी बहु बड़ी अच्छी है । मेरी सेवा करे न करे,फ़ोन पर
प्रणाम मम्मी कहना कभी नहीं भूलती है । बड़ी संस्कारी है । बेटा क्या काम का बोझ कुछ
ज्यादा आ पड़ा है ? तुम्हारी आवाज में बहुत झुँझलाहट है । क्या बात है बेटा , मुझे
भी बताओ । पहले तो थोड़ी सी चोट लगती थी, तो गोद में घंटों बैठकर मुझे चोट लगी जगह
को बता-बता कर रोता था । जिस चीज से तुमको चोट लगती थी; जब तक मैं उसे जाकर मारती
नहीं थी, चाहे वह खिड़की हो या दरवाजा या खाट, तब तक तुम चुप नहीं होते थे । याद है
न बेटा ?’ भावावेश में शांता, ३५ साल के बेटे को फ़िर से पाँच साल का सोचकर उसे शांत
करने की कोशिश करती जा रही थी । लेकिन बेटा था कि जिसे पत्नी को नाराज कर माँ –बाप
का बोझ उठाना पसंद नहीं था । उसे मालूम था, मेरे माँ – बाप के आने पर मेरी पत्नी की
व्यस्तता बढ जायगी । दिन को टी० वी० देखना, बिल्डिंग की औरतों के साथ गप्पें लड़ाना,
शायद संभव नहीं होगा । बेटा किसी भी शर्त पर अपनी मृगनयनी को नाराज नहीं करना चाहता
था । इसलिए बात इधर –उधर की न कहकर, बिना किसी लाग – लपेट का कह गया,’ माँ !
तुम्हारा
पोता दिन भर स्कूल में रहता है और मैं दिन भर आफ़िस में । रात को नौ बजे घर लौटता
हूँ । तुम्हीं सोचो,’ ऐसे में तुम यहाँ आकर क्या करोगी ? यहाँ आकर तुम्हारा
अकेलापन और बढ़ जायेगा । तुम जहाँ हो, वहीं थोड़ा सुबह – शाम घूम लिया करो । रही पानी
की बात, वो तो तुमको मालूम है, यहाँ पानी की किल्लत है।’
बेटे
से फ़ोन रखती हूँ, फ़िर बात करूँगी, कहती हुई शांता ने फ़ोन रख दिया । बूढी आँखों से
अश्रु पोछते हुए बोली,’ सब तकदीर है बेटा ! तुम्हारे घर का पानी मुझे इस तरह बेपानी
करेगा, मालूम नहीं था । मुझे माफ़ करो । तुम अपने घर के पानी की व्यवस्था करो , मैं
अपनी जिंदगी के पानी को बचाने की कोशिश करूँगी ।’