पातकनाशनम्
हीरा बीहड़ जंगल में पेड़ के नीचे लूट का माल फैलाये बैठा था। उसमें कुछ चीजे तो ऐसी
थीं जो देखने में बड़ी खूबसूरत और मन लुभाने वाली थी किन्तु उनका वह उपयोग न जानता
था। इसके अलावा कीमती जेवर, घड़ियाँ, कपड़े, नोटों से भरे पर्स - वह इन सबको
छाँट-छाँट कर अलग-अलग ढेरियाँ बना रहा था। ढेरियाँ बनाकर उसने उन सबकी अलग-अलग
पोटलियाँ बाँध दीं और उन पोटलियों को एक बड़ी सी मजबूत चादर में बाँध कर उसे अपने
सिर के नीचे तकिया बनाकर, पेड़ की छाँव में लेटकर, अपने साथियों - मुश्ताक और भैरव
की प्रतीक्षा करने लगा। सहसा ही उसकी बन्द आँखों में पहाड़ों की घाटी में बसे अपने
छोटे से गाँव और उस गाँव में गरीबी से भरे अपने घर की तस्वीरें उभरने लगी। कच्ची
मिट्टी की दीवारों और टूटी टीन की छत वाला उसका एक कमरे वाला छोटा सा घर - जिसमें
उसने अपने माँ बाप और छोटे भाई के साथ पूरे 10 वर्ष, दुनिया के कपट से बेखबर,
भोले-भाले ढंग से जीते हुए बिताए थे। माँ की याद आते ही उसकी आँखें आज भी नम हो
जाती हैं। उसे माँ से बड़ा लगाव था। माँ में उसकी दुनिया बसती थी। छोटा भाई ‘टुलू’ न
जाने कहाँ होगा अब ? तभी घोड़े की टापें हीरा को उसके घाटी में बसे घर से निकाल कर
जंगल में वापिस ले आई। मुश्ताक और भैरव खाना पानी लेकर आ गए थे। हीरा उठ बैठा और
बोला - “कुछ गड़बड़ तो नहीं हुआ? ढाबे वाले ने कुछ उल्टा सीधा, फालतू का जवाब तलब तो
नहीं किया?”
“नहीं, गुरु ! जिस दिन फालतू बोलेगा, उस दिन न वो रहेगा न उसका ढाबा”- यह कहकर
मुश्ताक ने जोर का ठहाका लगाया।
भैरव मुस्कराते हुए खाने का सामान खोल कर सामने रख रहा था। हीरा ने पानी की बोतल से
मुँह हाथ धोकर, फिर हाथ की ओक बनाकर गटगट पानी गटका। इसके बाद तीनों खाने पे टूट
पड़े।
हीरा और उसके साथी उस भयानक जंगल में जानवरों के साथ रहकर जानवर जैसे ही हो गए थे।
हिंसक, कठोर और बेरहम। उनकी आत्मा, उनकी संवेदना मानो पूरी तरह मर चुकी थी। रात में
गुजरने वाले वाहनों को नित नई तरकीबों से रोकना और उनमें बैठे लोगों को बेरहमी से
मारपीट कर उनका माल लूट लेना, यह उनका रोज का काम था। हीरा की कोई खास उम्र नहीं
हुई थी। मुश्किल से 28 वर्ष का था। उसकी सुदर्शन आकृति से कोई यह अनुमान नहीं लगा
सकता था कि वह कितना क्रूर और निर्दयी है। जन्म से मिली मासूमियत, भोलापन, और
सुकोमल सौन्दर्य उसके बाह्य व्यक्तित्व पर-सिर से पाँव तक, मीने की तरह गड़ा हुआ था।
वहशी ज़िन्दगी, बेपरवाह जीवनचर्या, कठोर क्रिया कलापों की वजह से यद्यपि उस मीने की
पपड़ियाँ बनने लगी थी और जगह-जगह से उखड़ने लगी थीं - पर अभी पूरी तरह उसका नामोनिशां
मिटा नहीं था। जंगल के पिछले सिरे पर बहने वाली छोटी सी पानी की धार में, जब कभी
हीरा अपनी मैली कुचैली कमीज उतार कर, हाथ मुँह धोता हुआ - अर्धस्नान करता तो मटमैले
कपड़ों के अन्दर से निकले, उसके गोरे, चम्पई रंग और सुगठित सुडौल शरीर को देखकर भैरव
और मुश्ताक अक्सर उसे छेड़ते हुए कहते - “उस्ताद तुम तो एकदम हीरो की माफिक चकाचक
हो। चाहो तो, राहजनी छोड़ कर फिल्मों में काम कर सकते हो।”
मजाक में ही कही गई ऐसी बातों को सुनकर, हीरा दोनों को कठोरता से तरेरता और कहता -
“ये सब कसीदे पढ़ने की जरुरत नहीं है समझे! आगे से मैं न सुनूँ ऐसी बात मजाक में भी
कि राहजनी छोड़ दे तो .......। यह राहजनी मेरी ज़िन्दगी है, उसी के बल पर मैं ज़िन्दा
हूँ, जी रहा हूँ। तुम दोनों भी इसी की दी हुई खा रहे हो। क्या समझे?”
भैरव और मुश्ताक उसके चेहरे पर उभरे कठोर ठन्डेपन को देखकर सकते में आ जाते, ऐसे
सहम जाते जैसे हीरा उन्हें उसी पल कच्चा ही चबा जायेगा। वे दोनों हीरा से पाँच - छः
साल छोटे थे। उन पर हीरा की हिम्मत, ताकत और हिंसक कठोरता का सिक्का जमा हुआ था। वे
तो कभी-कभी अपने गुरु को मस्का मारने की नीयत से, उसके साथ ऐसी छेड़खानी किया करते
थे। शायद उनके मन में कहीं यह एक छोटी सी आशा भी छुपी होती थी कि सम्भव है एक दिन
इस कठोर लावारिस दबी छुपी ज़िन्दगी से, वे अपने उस्ताद के बल पर निजात पा ले और एक
बेहतर ज़िन्दगी को अपना कर शान से रहे। पर हीरा की घूरती, तरेरती, हीरे जैसे चमकती,
बड़ी-बड़ी आँखें उनकी इस उम्मीद को मटियामेट कर देती।
कल रात की राहजनी में हीरा और उसके साथियों को सिवाय किताबों, फाइलों और रजिस्टरों
के मोटे-मोटे गठ्ठों के कुछ भी हाथ नहीं लगा था। हीरा खुन्दक खाए बैठा था। कुछ
घन्टे बाद जब हीरा के तेवर ढीले हुए तो वह जमीन पर औंधा लेटा हुआ भैरव और मुश्ताक
से बोला -
“देखो, मैं चाहता हूँ कि हम लोग आने वाले सालों में इतना माल इकठ्ठा कर लें कि
हमारी बाकी की ज़िन्दगी आराम से गुजरे। पर अभी हमें कमर कस के इस काम में जुटे रहना
है। किसी दिन भी, किसी पल भी, इस काम से पीछे नहीं हटना है। क्या समझे तुम !”
“समझ गए गुरु; हम भी यही सपना देखते हैं। हम कतई इस इरादे से भटकने वाले नहीं”-
दोनों एक स्वर में बोले । हीरा गर्व से भर कर पलटा और दोनों की ओर अर्थपूर्ण प्यार
भरी दृष्टि से देखा। तभी मुश्ताक लम्बी साँस लेता हुआ, अफसोस मनाता बोला - “उस्ताद
आज तो न जाने कैसी फटीचर गाड़ी हाथ लगी। जितनी ऊँची, उतनी खोटी। ऊँची दुकान, फीका
पकवान। मैं तो सोच रहा था कि भारी भरकम ‘टाटासोमू’ है तो खासा माल हाथ लगेगा; पर
उसमें तो कागज, किताबों का कचरा निकला ! धत्”
प्रत्युत्तर में भैरव बोला - “तो क्या हुआ, कभी-कभी कचरा भी हाथ लग जाता है। कल
‘माँ काली’ हमें चौगुना माल देगी।”
हीरा ने हौसला बढ़ाते हुए कहा - “ये हुई न बात । यारों उम्मीद पे दुनिया कायम है।
गुस्सा तो मुझे भी बहुत आया था। ये कचरा कूड़ा हाथ लगने पर, लेकिन कभी-कभी हाथ खाली
भी रह जाते है!”
तभी एक साँप सरसराता हुआ पत्तों के बीच लहराता, ऊपर की डाल से हीरा पर लटका, उसे
निहारने लगा। धीरे-धीरे उसका फन तन गया। उसकी जीभी रह-रह कर बाहर की ओर लपलपा रही
थी। भैरव और मुश्ताक बोले - “उस्ताद झपट के उठो। सिर पर साँप लटक रहा है। उसने
तुम्हें ठूँग मार दी तो, हम तो अनाथ हो जायेंगे।”
हीरा ने उनकी बात का जवाब दिए बिना, पलक झपकते ही अपने को साधते हुए झपटकर साँप को
फन से पकड़कर इतनी जोर से खींचा कि भैरव और मुश्ताक तो जड़वत देखते रह गए। फिर हीरा
ने आव देखा न ताव और पास पड़े बड़े से पत्थर को उठाना चाहा। नहीं उठा तो भैरव और
मुश्ताक ने वो भारी पतथर उठाकर हीरा के इशारे पर साँप के फन पर रख दिया। इतने में
हीरा ने जेब से छुरा निकाल कर साँप के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। देखते ही देखते हिलते
टुकड़ों, लहराती कटी पूँछ और छितरे खून का एक वीभत्स रक्तिम दृश्य वहाँ उपस्थित हो
गया। हीरा के चहरे पर छपी हिंसा ने उस पल उसे ‘बेहद डरावना’ बना डाला था। शनैः शनैः
कुछ देर बाद हीरा फिर पहले की तरह सामान्य हो गया।
“गुरु ऐसे छुपे रुस्तमों से अपनी जान को बहुत खतरा है “ - मुश्ताक ने चिन्ता जाहिर
की। हीरा ने उसे ढाँढस बँधाते हुए कहा - “अरे ये कीड़े तो दिन में कभी-कभी दिख जाते
हैं। रात को ये भी अपने बिलों में दुबक कर सोए रहते हैं।” हीरा के इन शब्दों ने
दोनों को तसल्ली भरी एक राहत का सा एहसास कराया।
* * * * * * *
घर की गरीबी और भुखमरी से पीड़ित होने पर ही हीरा ने इस काम में हाथ डाला था। इस काम
की शुरुआत गाँव के एक छोटे से ढाबे से दो रोटी चुराने से हुई थी। जब इस चोरी का
हीरा के बाप को पता चला तो उसने हीरा को बहुत मारा। किसी तरह माँ ने उसे बाप के
कर्कश हाथों से बचाया और अन्दर ले जाकर, हीरा को अपनी छाती से चिपटाकर दुख से भरी
घन्टों रोती रही। इस घटना के कुछ दिन बाद वह एक दिन शहर जाने वाली बस में चढ़ा और
पीछे की सीट के पास नीचे दुबका हुआ बैठा रहा। कन्डक्टर की उस पर नजर भी पड़ी पर न
जाने क्या सोचकर उसने उसे कुछ न कहा और इस तरह वह एक अंजान नगरी में जा पहुँचा।
वहाँ न जाने कितने दिन तक वह भूखा-प्यासा, धूल फाँकता भटकता रहा । रात को फुटपाथ पर
सोता और सुब्ह होने पर वहीं पालथी मार कर बैठा रहता। वहाँ से गुजरने वाले उसे
भिखारी समझ कर उसके सामने पैसे फेंकते निकल जाते। इस तरह से उसकी ओर फेंके गए पैसे
उसके स्वाभिमान पर घाव करते। उस सम्वेदनहीन, ठन्डे शहर में और भी न जाने कितने
अत्याचारों और हादसों का वह शिकार हुआ और एक के बाद एक घाव, एक के बाद एक चोट उसके
दिल में धीरे-धीरे ऐसे नासूर बन गए कि वह क्रूर और वहशी होता गया। जैसे-जैसे वह बड़ा
हुआ, उस पर समय के साथ-साथ क्रूरता, छल, कपट और कठोरता का आवरण चढ़ता गया। दिन पर
दिन ये परते सघन से सघनतर होती गईं। छः साल में वह दुनिया जहान के हर ऐब, हर
खुराफात, हर तरह के कष्ट और पीड़ा से अच्छी तरह परिचित हो गया । घर से जब वह भागा था
तो उसकी उम्र 10 साल के लगभग थी। अब वह उठते कद, अदम्य उर्जा और शक्ति से भरपूर 28
साल का तेजतर्रार जवान था, जिसने अपने जीवनयापन के अनेक नुस्खे सीख लिए थे; सीख ही
नहीं लिए थे अपितु उन्हें क्रियान्वित करने की एक सनकभरी ताकत और हिम्मत भी रखता
था। मुश्ताक और भैरव भी उसी शहर की देन थे, जो एक दिन भटकते हुए हीरा से जा टकराए
थे। एक दिन तीनों ने मिलकर शहर के एक नामी सेठ के घर डकैती डाली और जेवर व रुपयों
सहित 6-7 लाख का माल लेकर जो चम्पत हुए तो इस बीहड़ जंगल में ही आकर साँस ली। उस
बीहड़ जंगल में एकाएक एक बच्चें के रोने के स्वर ने हीरा और उसके दोनों साथियों को
चौकन्ना बना दिया। तीनों उस भयानक जंगल में उस मासूम रूदन से चकित तो थे ही, साथ ही
जहरीले शक से अधिक भरे हुए थे। तीनों ने एक दूसरे को प्रश्न सूचक दृष्टि से देखा।
फिर हीरा के इशारे पर, मुश्ताक और भैरव अपने अस्त्र-शस्त्रों से लैस होकर, दबे पाँव
उस ओर बढ़ने लगे, जिधर से बच्चे का रुदन स्वर रह-रह कर उभर रहा था। बीच-बीच में
बच्चे की आवाज धीमी होती थी, लेकिन फिर वह जोर से रोने लगता था। जैसे-जैसे वे आगे
बढ़ते जा रहे थे, हीरा के मन में बच्चे के चीख-चीख कर रोने से कहीं अन्दर ही अन्दर
बेचैनी उपजने लगी थी। अब वे तीनों बच्चें से इतनी दूर पेड़ों और झाड़यों की ओट में
छिपे थे कि बच्चें को अच्छी तरह देख सकते थे। तीनों की पैनी व खोजी दृष्टि आस-पास
और दूर-दूर तक चारों ओर बच्चे के संरक्षक - माँ-बाप को खोज रही थी; या फिर पुलिस ने
यह कोई चाल चली है इस बियांबान जंगल के गर्भ में छुपकर अपनी दुनिया जीने वाले हीरा
और उसके साथियों जैसे गुनहगारों को खोज निकालने की ? उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था
कि एक अकेला, मासूम बच्चा उस जंगल में कैसे आया, कौन बेरहम उसे छोड़ गया या किसी की
विवशता ने उस बच्चे को जंगल में मरने को छोड़ दिया?! तीनों परेशान, बेहद परेशान थे
कि क्या करे! बच्चे के पास जाए या न जाए...? अब हीरा की बेचैनी बच्चे के सुबक कर
रोने से इतनी बढ़ गई कि उसे निर्णय लेना ही पड़ा कि देखी जायेगी, जो होगा, सो होगा -
बच्चे का इस तरह रोना बिलखना नहीं देखा जाता ! सब ‘ऊपरवाले’ पर छोड़, हीरा बच्चे की
ओर बढता गया। उसने बच्चे को सामने से जब देखा तो उसके सुन्दर चेहरे को सम्मोहित सा
देखता ही रह गया - कितना खूबसूरत, सलोना बच्चा, कैसा सुबक-सुबक कर रो रहा था ! उम्र
लगभग 1 वर्ष रही होगी। मुश्ताक और भैरव भी मन ही मन डरे हुए पर चौकन्ने होकर अपने
उस्ताद के पास पहुँच गए और हाथ में बन्दूक तानकर हीरा के इधर-उधर रक्षक दीवार बनकर
चारों ओर मुड़-मुड़ कर तलाशी सी लेने लगे कि सम्भव है - अब कोई बच्चे के पास खड़े उन
तीनों की ओर लफ । पर कोई नहीं आया । हीरा ने प्यार से बच्चे को गोद में उठाया।
बच्चा प्यार का स्पर्श पाते ही थोड़ा-थोड़ा आश्वस्त सा,सम्हला सा, बेहिचक उसकी गोद
में चला गया - शायद उस डरवाने, सन्नाटें से भरे माहौल में प्यार भरा इंसानी स्पर्श,
स्नेह भरी दृष्टि उस मासूम को सम्बल की तरह लगी। देखते ही देखते उसने रोना भी बंद
कर दिया। हीरा उसे गोद में भरे, उसके गालों से आँसू पोंछता, अपने ठिकाने की ओर चला।
इस पल मानों उसे किसी बात की परवाह न थी, ख्याल न था; बस चिन्ता थी, ख्याल था, तो
उस प्यारे भोले बच्चे का। मुश्ताक और भैरव तो हीरा का वह वात्सल्य रूप देखकर हैरत
में थे। वे दोनों उस मासूम बालक पर कम, अपने उस्ताद के ममत्व पर अधिक मोहित हो रहे
थे। तीनों की अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएँ हो रही थीं। उस कँटीले, झाड़ झंरवाड़ों से भरे
रुक्ष-खुश्क जगह में एक नन्ही सी जान ने देखते-ही देखते, प्रेम, वात्सल्य और
सौन्दर्य की त्रिवेणी सी प्रवाहित कर दी थी। उसकी उपस्थिति से मानों सारा वातावरण
सजा सँवरा हो गया था। हीरा, मुश्ताक और भैरव - तीनों जंगलियों की आँखों, चेहरे और
हाव-भाव में जो कोमलता, ख्याल, उभर आया था - उससे वह बीहड़ वन भी अछूता नहीं रहा था।
मन्द-मन्द बहती बयार, घने पेड़ों की छाँव, प्राकृतिक वनस्पतियों और जंगली फूलों की
सहज खुशबू - सब मिला कर वातावरण प्रफुल्लता से भर उठा था। तभी हीरा ने भैरव और
मुश्ताक को आदेश दिया कि झपट कर बच्चे के लिए दूध, फल और कुछ बिस्किट के पैकेट लेकर
आएँ। भैरव ने याद दिलाते हुए कहा - “उस्ताद, अपना खाना भी लेते आए”- हीरा हँसा और
बोला -
“हाँ उसे तू कैसे भूल सकता है, आकाश टूट पड़े या धरती फट जाए, पर खाना तुझे जरुर याद
रहता है। चलो, अच्छी बात है - हम तीनों में एक तो कम से कम इस भोजन की जरुरत के
प्रति इतना सजग है जिसकी वजह से हमें बिना नागा खाना मिलता है। मुझे तो आज भूख ही
नहीं लगी। इस बच्चे ने मेरी भूख ही खत्म कर दी। चलो, लपको और जल्दी से हमारे इस
नन्हें मेहमान के लिए सामन लेकर आओ।”
उन दोनों के जाने के बाद हीरा कभी बच्चे को पुचकारता, कभी उससे बाते करता, कभी उसे
गले लगाता तो कभी उसके बालों को सहलाता, इस तरह न जाने कितना समय बच्चे के साथ
हिलने मिलने मे चला गया। कब मुश्ताक और भैरव सामान लेकर आ गए, इसका भी हीरा को पता
न चला। उनके आते ही हीरा ने बड़े प्यार से गिलास में दूध पलटा, थोड़ा ज्यादा गर्म लगा
तो लोटे में डालकर ठन्डा किया, फिर गिलास में उछाल कर भरा। बच्चा भी ठन्डे होते और
फिर गिलास में उछाल कर भरते दूध को धैर्य रखे, चुपचाप मानों इस आस में देखता रहा कि
यह अब उसे ही मिलने वाला है। उसका ही भोजन है जो अब उसके लिए तैयार किया जा रहा है
उछाल कर। हीरा ने जैसे ही उसे गोद में बैठाकर, गिलास उसके मुँह से लगाया, बच्चे ने
आधा गिलास दूध तो बिना साँस लिए पी लिया उसके बाद थोड़ी साँस लेने के लिए उसने अपने
नन्हें हाथों से गिलास मुँह से हटाया। बच्चे के मुँह के दोनों ओर और ऊपरी होंठ पर
दूध की सलोनी लकीरें बन गई थी। तीनों उसके उस लुभावने रूप को देखकर हँसे तो बच्चा
भी प्रत्युत्तर में हँसा - लेकिन अगले ही पल, दूध का गिलास थामे हीरा के हाथ को
अपने हाथों से खींचते हुए अपने मुँह की ओर बढ़ाया। हीरा ने भी उसके संकेत को समझकर,
तुरन्त बड़े नेह से गिलास उसके मुँह से लगा कर, बचा हुआ दूध भी उसे धीरे-धीरे पिला
दिया। बच्चे को तृप्त और खुश देखकर, हीरा मन ही मन एक अनूठा सन्तोष, एक अनोखी खुशी
रह-रह कर महसूस कर रहा था। बच्चे का पेट भर जाने से मानो हीरा का पेट भी भर गया था।
साथियों ने खाने के डिब्बे खोले और हीरा से शुरू करने को कहा तो चाहते हुए भी हीरा
से कुछ भी नहीं खाया गया। किसी तरह एक रोटी खाकर उसने हाथ खींच लिया। हाथ धोकर,
कुल्लाकर, उसने बच्चे को उठाया और पेड़ की छाँव में एक चादर बिछा कर बच्चे को उस पर
लेटा दिया। नींद से भरा बच्चा, लेटते ही सो गया। हीरा भी उसके पास लेट गया। जब
मुश्ताक और भैरव खाना खाकर, उसके पास आकर बैठे तो सोच में डूबा हीरा बोला –
“बच्चे को हमने रख तो लिया अपने पास, पर इसकी देखभाल, इसे पालना-पोसना यह सब बड़ी
जम्मेदारी का काम है। तुम्हारी क्या राय है, इसे रखे या कहीं गाँव में रात को छोड़
आएँ? कोई घर परिवारवाला उठाकर ले जायेगा।”
मुश्ताक ने कहा - “उस्ताद अपने रहने का ठीक इन्तजाम नहीं। यह नाजुक चूजा हमारे साथ
सर्दी-गर्मी में परेशानियों को कैसे झेलेगा ?”
भैरव भी गम्भीरता से बोला - “रात को जब हम तीनों काम पर जायेंगे, तो इसे कौन देखेगा
? हमारे पीछे किसी जंगली जानवर ने इसे हजम कर लिया तो ...”
भैरव हीरा की क्रोध भरी घूरती आँखों को देख, बीच में ही बोलते-बोलते रुक गया। हीरा
ने फैसला सुनाते हुए कहा -
"तुम दोनों की महान सोचों और डरपोक ख्यालों के लिए शुक्रिया ! इतने दिन मेरे साथ रह
कर भी गीदड़ के गीदड़ रहे। कुछ दिल-जिगर है कि नहीं तुम्हारे पास। मैं तो तुम दोनों
को टटोल रहा था। धत ! दोनों में से एक भी किसी काम का नहीं। अब सुनो मेरी बात कान
खोलकर कि जब हम राहजनी के लिए जायेंगे तो इस बच्चे को अकेला नहीं छोडेंगे। हम में
से कोई न कोई इसके पास रहेगा। मैं हर तरह के झंझट और उन कष्टों के बारे में इस
बच्चे को लेकर सोच चुका हूँ जो इसके कारण हमें उठाने होंगे। इतना कुछ समझते हुए भी
न जाने क्यों इसे अपने से अलग करने का दिल नहीं हो रहा। इसके लिए तो हर परेशानी
उठाने को तैयार हूँ मैं। पर इसे किसी भी कीमत पर मैं नहीं छोडूँगा।” हीरा के चेहरे
पर पिघलती कठोरता और पसरती कोमलता को देखकर,भैरव हिम्मत करके बोला - “उस्ताद ! तुम
तो भावुक हो रहे हो ।”
यह सुनकर बच्चे को प्यार से निहारता हीरा बोला - “इसे देखकर कौन भावुक नहीं हो
जायेगा? इसकी मासूमियत में इतनी ताकत है कि मुझ जैसे पत्थर दिल को भी अपनी गिरफ्त
में कर लिया इस पाजी ने! क्या करूँ ? दिमाग कहता है कि इसे दूर बस्ती में छोड़, आने
वाली सारी मुश्किलों से अलविदा ले लूँ। दिल कहता है कि इस इस नन्हें देवदूत को अपने
अलग न करूँ। इसके फूल जैसे हाथ - उनसे जब यह मुझे छूता है तो मैं अपने गाँव के उस
घर में पहुँच जाता हूँ जहाँ मेरा बचपन मेरे दिलो दिमाग में आज भी जीवित है। इसमें
कभी मैं अपने छोटे भाई की झलक देखता हूँ, तो कभी इसका छूना मुझे माँ की याद दिलाता
है। इसने वाकई मेरा जीवन मुश्किल में कर दिया है। अभी तो शुरुआत ही है - आगे यह
‘जालिम’ क्या-क्या गुल खिलायेगा - यह देखना है मुझे और उसके लिए तैयार भी रहना है।
फिलहाल तो मैं इसे अपने दूर नहीं करना चाहता। तुम दोनों को इस कठिन काम में मेरा
उसी वफादारी से साथ देना होगा, जैसे पहले काम में अब तक देते आए हो। समझे!”
भैरव और मुश्ताक ने सिर हिलाकर निष्ठापूर्वक हामी भरी किन्तु हीरा की कायापलट पर
अन्दर ही अन्दर अचरज करते बैठे रहे। हीरा ने बच्चे का नाम ‘चिराग’ रख दिया। उस
बच्चे में मानो हीरा को अपना खोया बचपन, भोला भाई, अपनी माँ की कोमलता, सबकुछ मिल
गया था। इसलिए ही एकाएक हीरा का बीता माया-मोह और लगाव फिर से उभर आया था। हीरा
पैदायशी तो अपराधी नहीं था। समय और किस्मत की मार ने उसे वहशी और जंगली बना दिया
था। वरना वह भी इस बच्चे की भाँति कोमलता व मासूमियत से भरा एक निष्कपट इंसान था।
हीरा की इंसानियत मरी नहीं थी; वरन् अत्याचारों, भुखमरी, पीड़ादायक हादसों की कठोर
चट्टानों के नीचे दब गई थी। पर उस भोले मासूम ‘चिराग’ ने अन्जाने ही, बिना किसी जोर
जबरदस्ती के हीरा के अन्दर एक के ऊपर एक जमी चट्टानें खिसकानी शुरु कर दी थी। हीरा
महसूस कर रहा था कि वे बड़ी तेजी से एक-एक करके गिरती जा रही है। इस बात से वह
परेशान भी था, लेकिन बच्चे के सम्पर्क में बने रहने का मोह उसके लिए बड़ा सशक्त और
अपरिहार्य साबित हो रहा था। चिराग के मोह जाल में वह ऐसा फँसता जा रहा था जिसकी
उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
* * * * * * *
देखते ही देखते छः महीने बीत गए। वह बच्चा हीरा के जीवन का ऐसा उजाला बन चुका था,
जो जीवन की दूसरी राह पर रौशनी डाल रहा था और उसे अपराधों से भरी ज़िन्दगी छोड़ने की
गुहार लगा रहा था। वह दिन भी आ ही गया जब एक रात आकाश में खिले पूरे चाँद को टकटकी
बाँध कर देखते हुए हीरा ने अपना निर्णय दोनों साथियों को सुनाया कि अब वे तीनों
बच्चे को लेकर दूर किसी शहर में जाकर बसेंगे। बच्चे को पढ़ायेंगे, लिखायेंगे, उसकी
ऐसी परवरिश करेंगे कि वह उनकी तरह अपराधी नहीं, बल्कि अच्छा इंसान बने। उनकी तरह
गरीबी व हालात से मजबूर होकर काँटों भरी ज़िन्दगी न काटे ।
* * * * * * *
मानो पलक झपकते ही समय बीतता गया और चिराग बड़ा होता गया। आज चिराग 22 साल का एक पढ़ा
लिखा ऐसा सुन्दर नवयुवक है, जो आचार व्यवहार में ऐसा सलीके वाला है कि पहली ही
मुलाकात में मिलने वाले का दिल जीत लेता है। इस सबका श्रेय जाता है - उसके पालक,
उसे संरक्षक हीरा को, जिसने उसे आज इस मुकाम तक पहुँचाया, जिसने उसे उदात्त संस्कार
दिए। हीरा भी आज एक ‘बालमित्र’ नामक समाज सेवी संस्था का संचालक, संरक्षक एवं
अध्यक्ष है जिसे हीरा ने अनाथ व गरीब और भटके हुए बच्चों की परवरिश के लिए आज से 10
वर्ष पूर्व स्थापित किया था। अब तक यह संस्था न जाने कितने बच्चों का जीवन सँवार
चुकी है, उन्हें एक सधी हुई राह और स्वस्थ जीवन दे चुकी है। ‘चिराग’ हीरा का
प्रेरणा स्त्रोत, उसका कितना सम्मान, कितना आदर करता है, कितना प्यार देता है उसे;
इसका पता तब चलता है, जब आज भी हीरा के बिना वह न खाना खाता है, न आराम करता है।
खाने का पहला ग्रास वह अपने ‘अप्पा’ को खिलाता है, फिर खुद खाता है। चिराग के इस
तरह प्यार से पहला ग्रास हीरा को खिलाने पर उसकी आँखे छलछलाए बिना नहीं रहती। हीरा
को बीहड़ जंगल से निकालकर, अपराधों से विरत कर, जीवन की उजली और स्वस्थ राहे पे लाना
वाला चिराग निःसन्देह उसके जीवन का सूरज हैं। दैवयोग से यदि रोता-बिलखता चिराग उस
दिन उसे जंगल में न मिला होता, तो हीरा के पापों का नाश कैसे होता ? उसने मजबूरी और
बेअक्ली में जो अपने जीवन के 17-18 साल राहजनी करते बिताए और अपनी उस जीवनधारा के
कारण वह जिस पाप का भागी बना - वे सब चिराग ने, देवदूत के रूप में उसके जीवन में
आकर धो डाल।
व्यक्ति के लिए जीवन में कोई भी चीज, कोई भी इंसान, कोई भी घटना, अच्छे व उच्च
कार्यों व स्वस्थ जीवन की प्रेरणा तभी बन सकती है - जब स्वयं व्यक्ति में उदात्तता
व अच्छाई छुपी हुई हो। दूसरे के दर्द से व्यक्ति तभी अभिभूत हो सकता है, जब स्वयं
उसमें दर्द को महसूस पाने की सम्वेदना छुपी हुई हो। दूसरे की सच्चाई और निष्कपटता
से व्यक्ति तभी प्रभावित होता है, जब सच्चाई और निष्कपटता स्वयं उसकी मन की परतों
में दबी हुई हो। ईश्वर ने शायद हीरा के अन्दर परिवर्तित हो जाने की सम्भावना को
जानकर ही, उसके दिल की गहराईयों में दबी निष्कपटता, उदात्तता की थाह पाकर ही, उन
गुणों को मुखर करने के लिए उस नन्हें बच्चे को रहनुमा बनाकर जंगल में उसकी झोली में
डाला था। ईश्वर के ढंग बड़े निराले होते हैं। उसकी कृपा से जैसे क्रौंचवध ने
वाल्मीकि का जीवन रुपान्तरित कर दिया था, उसी तरह चिराग हीरा के रुपान्तरण का आधार
बन गया। निःसन्देह उसकी लीला अपरम्पार है। कभी उससे माँगो, मिन्नतें करो, तो वह कुछ
नहीं देता और जब उसे देना होता है तो वह बिन माँगे छप्पर फाड़ कर देता है ! उससे बड़ा
दानी, उससे बड़ा दण्डक, उससे बड़ा चमत्कारी नियन्ता कौन हो सकता है ? हीरा जैसे लोगों
के जीवन में आए अद्भुत परिवर्तन को देखकर ही ईश्वर की कारसाजी पर, उसकी महती शक्ति
पर मन सोचने को विवश होता है।