रहस्य रोमांच से भरपूर सत्यकथा
सातबड
रामकिशोर पंवार रोंढावाला
रोढा सहित आसपास के दर्जनो गांव के लोग ताप्ती नदी पर स्थित बारहलिंग के मेले के
लिए पैदल - बैलगाडी से सातबड होते हुये ही आना - जाना करते थे। आज पूरे दिन जम कर
बरसात होने से पूरे गांव में अफरा - तफरी मची हुई थी। गांव का तलाब लबालब भर चुका
था। मरघट वाला नाला पूरी तरह से ऊफान पर थ। गांव के कुछ चरवाहे जो कि बरसात में
किसानो के जानवरों को ठेके पर चराने ले जाया करते थे उन्ही लोगो में से एक परिवार
का सदस्य था वामन जिसके सातबड के पास किसी नदी - नाले में बह जाने की खबर सुनने के
बाद पूरे गांव मे सन्नाटा छा गया था। वामन को खोजने के लिए गांव के आधा दर्जन युवको
की टोली अपने साथ राशन - पानी का सामान लेकर बरसात से बचने के लिए कम्बल को ढक कर
गांव से निकल चुके थे। हमारे गांव में गायकी समाज के लोग न होने के कारण गांव के
जानवरो की बरसात के चार महिने की चरवाही का काम गांव के ही किसी भी गरीब परिवार के
बेरोजगार युवक से लेकर पौढ व्यक्ति किया करते थे। ऐसे लोग समूह बना कर जानवरो को
एकत्र कर ताप्ती के जंगलो में ले जाया करते थे। गांव से कोसो दूर इन जंगलो में एक
झोपडा बन कर उसमें रह कर जानवरो के लिए बाडा बना कर उसमें उन्हे रात में बांध लिया
करते थे। वामन - तुकाराम और दयालू तीनो संगी - साथी होने के कारण वे पिछले सात - आठ
सालो से जंगलो में बरसात के समय जानवरो को ले जाया करते थे। ताप्ती के जंगलो में
जानवरो को चरने ले जाने से पहले सभी चरवाहे और ग्रामिण सातबड के पास सातबड वाले
बाबा के स्थान पर पूजा - अर्चना करने के बाद ही आगे की ओर प्रस्थान करते थे।
सेलगांव और सावंगा के बीच में स्थित सातबड के बारे में अकसर नानी कहानी बताया करती
थी कि इस स्थान पर सात बरगद के पेड है जिन्हे ग्रामिण अपनी भाषा में सातबड कहा करते
थे। इस स्थान पर अकसर शेर - चीतो की दहाडे सुनने को मिलती थी। पालतू जानवरो को
जंगलो में शेर -चीते न खा जाये इसलिए ग्रामिण और चरवाहे सातबड वाले बाबा की पूजा -
अर्चना करते रहे थे। तुकराम को घर के लोग बंगा कह कर ही पुकारते थे। अकसर अपनी
मनमर्जी के अनुसार रहन - सहन करने वाले बंगा की और वामन की अच्छी - खासी यारी -
दोस्ती थी। पिछले कई सालो से वे जंगलो की खाक छानने के साथ - साथ एक दुसरे के पक्के
दुख - सुख के साथी बन चुके थे। वामन के नदी - नाले में बह जाने की खबर भी गांव तक
तुका ऊर्फ बंगा काका ही लेकर आया था। गांव के युवको की चार - पांच टोली अलग - अलग
दिशा में वामन को खोजने को निकल चुकी थी। गांव के लोगो ने उन्हे बताया भी था कि
जंगल में जाने से पहले सातबड वाले बाबा की पूजा - अर्चना कर लेना लेकिन वामन के गम
में सभी लडके उस बात को भूल गयें और अपने - अपने रास्तो की ओर निकल पडे।
तुकाराम काका के साथ जो चार पांच लडके गये थे उसमें मैं भी शामिल था। मैने भी पता
नहीं क्यों दादी की कहीं बातों को अनसुना करके बिना पूजा - अर्चना के ताप्ती के
जंगलो में प्रवेश कर लिया। इधर बरसात थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। किसी तरह गांव
के आसपास के नालो को पार करके ताप्ती के जंगलो मे आ तों गये लेकिन जंगल में अंदर
घुसने के बाद चारो ओर छाये घनघोर अंधेरे ने हमें पास के उस नाले तक पहुंचाने में
पूरा दिन लगा दिया जिसमें वामन के बह जाने की खबरी मिली थी। पता नहीं क्यों हम उस
नाले के आसपास होने के बाद भी उस तक पहुंच नही पा रहे थे। हम बार - बार घुम फिर कर
उसी रास्ते पर आ जाते जहां से शुरू हुये थे। अब जब पूरी तरह पांवो ने जवाब दे दिया
तो ऐसा लगने लगा कि हम किसी बडी मुसीबत में फंस चुके है। आसपास के आदिवासी गांवो के
लोगो के बंजर पडे खेतो में बनाई बाडी यहां तक हमंे अपने जंगलो में चराने के लिए
लाये गये जानवरो का बाडा तक नजर नहीं आ रहा था। अब हमें ऐसा लगने लगा था कि जंगल
में वामन को खोजने के चक्कर में हम सब अपने दयालू को भी भूल चुके थे जिसे वामन के
गुम हो जाने के बाद तुका काका ने जानवरो के साथ उस बाडे में रूकने को कहा था। शाम
के ढलते ही जंगलो में बुरी तरह फंसने के बाद हम सभी सिर पर मौत का संकट मंडराने लगा
था। घनघोर जंगलो में रास्ते तक भूलने के बाद किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि
आखिर करे तो क्या...! जब हम सभी लडको को रोता देख अचानक तुका काका ने अपना मौन तोडा
और वह जोर- जोर से ठहाको के साथ हसने लगा। उसे इस तरह हसता देख हम सभी यार - दोस्तो
की सिटट्ी - पिटट्ी गुम हो चुकी थी। उस समय हम सभी दोस्तो की उमर कोई ज्यादा नही
थी। गांव के ही मीडिल स्कूल में छटवी कक्षा में पढते थे। बरसात में स्कूल की छतो से
पानी टपकता था इसलिए मास्टर लोग बरसात के चार महिने चार दिन भी सही ढंग से स्कूल
नहीं लगाते थे। दो बार स्कूल की दिवार के गिर जाने तथा उसमें दो लडको के दब कर मर
जाने के बाद भी जब स्कूल की दिवारो को नहीं सुधारा गया तो बच्चो की जान को जोखिम
में डालने के बजाय मास्टर जी ने स्कूल ही लगाना बंद कर दिया था। गांव के मुखिया को
इस बात की खबर थी लेकिन उसके लडके तो शहर में पढा करते थे इसलिए उसे कोई चिंता नहीं
थी। गांव के लडके भी बरसात के महिनो में बस्तो मे बंद काफी - पुस्तको को पढने के
बजाय किसी के खेत - खलिहान में मजूदरी करना पंसद करते थे। एक आना रोज से गांव में
लडको को जानवर चराने से लेकर खेतो - खलिहानो में जागली - चैकीदारी का काम मिल जाता
था।
हमारे गांव के मोहल्ले में तेरह - चैदह साल के हम चार - पांच लडको की टोली हुआ करती
थी। गरीब परिस्थिति में जीवन यापन किसी यातना से कम नहीं होता है। दादा ठेके पर
कुयें खोदने का काम करते थे। दादी और मां गांव में जमीदारो के खेतो में काम पर जाती
थी। आज जब हम सभी हम उम्र के लडको की टोली गांव से की सरहद से बाहर निकली जिसमें
तुका काका ही सबसे बडा था। गांव के लोगो ने हमें जंगल जाने से मना भी किया लेकिन
वामन के घरवालो का रोता हाल देख कर कुंजू - गिरधारी - भगवान और गजानंद अपने घर वालो
को बिना बतायें घर से मेरे कहने पर निकल चुके थे। सिर्फ मैं ही अपनी दादी वामन को
ढुढने जाने की बात बता कर निकला था। मेरे सहपाठी कंुजू लोहार ने अपने घर में किसी
को कुछ बताया भी नहीं जबकि उसके घर पर कल से गणेश जी बैठने वाले थे। हम सब संगी
साथी कंुजू लोहार के घर पर गणेश जी को बैठालने की तैयारी में लगे हुये थे इस बीच
वामन के नाले में बह जाने की खबर मिलने के बाद हम सभी लडके भी अन्य लोगो की तरह
ताप्ती केे जंगलो की ओर तुका ऊर्फ बंगा काका के साथ निकल पडे थे। अब काली स्हाय रात
को कैसे काटे इस चिंता से ज्यादा जानमाल की हो रही थी। पटोली में लाई रोटी नम
मिर्ची के साथ खाने के बाद पेट का ज्वाला तो शांत हो गई लेकिन मन बार - बार होने
वाले किसी अंदेशे को को लेकर सहम जाता था। अब हमारे पास अपनी उस अनजानी भूल को
सुधारने के सिवाय कोई चारा नहीं था। सभी ने सातबड वाले बाबा को एक साथ पुकारा और
हमें राह दिखाने की विनती की। इधर बरसात से हमारा कम्बल भी पूरी तरह भीग चुका था।
ठंड से शरीर थर - थर कांपने लगा।
कल गणेश जी को कंुजू लोहार के घर पर कैसे बैठाल पायेगें इस बात को लेकर मन में तरह
- तरह के सवाल उठने लगे थे। कुछ देर में बरसात के छीटे कम पडते देख हम सभी पेड की
ओट में दुबके रहने के बाद एक बार फिर रास्ते को खोजने के लिए आगे बढने ही वाले थे
कि किसी ने आवाज दी ‘‘ रामू बेटा कहां जा रहा है.......!’’ आवाज कुछ जानी - पहचानी
लगी। इस विरान जंगल में हमें कुंजू के दादा जी लोहार बाबा की आकृति दिखाई दी। उस
आकृति को देख कर हम सब भौचक्के रह गये क्योकि अभी दो महिने पहले ही कुंजू के दादा
जी की मृत्यु हो चुकी थी। दादा जी का अंतिम संस्कार गांव के लोगो द्धारा ताप्ती नदी
में किये जाने के लिए उन्हे सातबड वाले रास्ते ही ले गये थे। पास आने पर लोहार बाबा
ने कुंजू के शरीर पर हाथ फेरा और बोले ‘‘ कंुजू तू बेटा नाराज है.....! मुझे अभी
नहीं मरना था.......! तुम लोग चाहते थे कि गणेश जी विसर्जित होने के बाद ही मेरी
मौत हो ताकि तुम लोग गणेश जी की अच्छे से पूजा - अर्चना कर सके। पर क्या करू बेटा
मुझे तो ऊपर वाले का बुलावा आ गया था इसलिए जाना पडा......! ’’ इधर कुंजू सहित हम
सबका डर के मारे बुरा हाल हो रहा था। अभी कुछ देर पहले तक लगने वाली ठंड के बाद भी
हम पसीने से तर - बतर हो गयें थे। लोहार बाबा ने हमें बताया कि ‘‘ चिंता कि कोई बात
नहीं वामन जिंदा है तथा वह अपने घर पहुंच चुका है। उसे भी बहता देख मैने ही बाहर
निकाल कर उसे गांव जाने को कहा था......।’’ उस घनघोर जंगल में कुंजू के दादा जी
हमें अपने गांव के जानवरो के बाडे के पास ले जाने के बाद पता नहीं कहां अदृश्य हो
गये। अपने झोपडे में आग ताप रहा दयालू हमें देखने के बाद बोला ‘‘ इतनी रात को आने
की क्या जरूरत थी , सबुह आ जाते.......!’’किसी तरह रात काटने के बाद सुबह उठते ही
हम सभी लडके तुका ऊर्फ बंगा काका को वही छोड कर सीधे ताप्ती से सातबड वाले रास्ते
से गांव की ओर निकल पडे। सातबड के आते ही हम सभी ने कान पकड कर अपनी अनजानी भूल के
लिए माफी मांगी और सातबड वाले बाबा से कहा कि‘‘ बाबा हमें पता चल चुका है कि लोहार
बाबा की शक्ल में आप ही हमें रात को संकट से बाहर निकालने के लिए आये थे, यदि रात
को आप नहीं आते तो हम शायद आज की सुबह नही देख पाते.....!’’ हम सभी लडको ने उन सातो
एक साथ आसपास लगे बरगद ‘‘ बड ’’ के पेडो की परिक्रमा लगाई और सीधे अपने गांव के
रास्ते की ओर निकल पडे। गांव पहुंचने पर हमें अपने रिश्तेदारो की डाट - फटकार तो
सुनने को मिली लेकिन जब हमने वामन से पुछा कि ‘‘ वह जब नाले में बह गया था तो उसे
किसने बचाया......! ’’ वामन की बताई कहानी में भी काफी रहस्य एवं रोमांच था। उसके
अनुसार वह नाले में बहते काफी दूर जा निकला था लेेकिन तैराना जानने के बाद भी वह
नाले को पार कर इस पार या उस पार नहीं जा पा रहा था। ऐसे में वामन ने अपनी जान को
संकट में देख सातबड वाले बाबा को आवाज लगाई लेकिन कुछ देर बाद जब उसे होश आया तो
उसने स्वंय को सातबड के पास बेहोश पाया। सातबड के पास एक आठ - नौ साल का बच्चा खडा
था जो उससे कह रहा था कि ‘‘ वामन गांव जा पूरे गांव में तेरे बह जाने की खबर फैलने
के बाद तेरे घर वालो का रो - रोकर बुरा हाल हो गया है। गांव वाले तुझे खोजने इस
जंगल में आ चुके है। वामन तू जितनी जल्दी हो सके अपने घर जा क्योकि मुझे भी कहीं और
जाना है......’’! इधर उस रात को हमंे लोहार बाबा तथा वामन को बच्चे के रूप मंे
मिलने वाले सातबड वाले बाबा के चमत्कार से हम सभी उपकृत हो चुके थे लेकिन गांव का
वामन को खोजने गई दुसरी टोली के न आने से पूरे गांव के लोग डरे सहमे दिखाई दे रहे
थे । शाम के ढलते ही वे लोग भी आ चुके थे उनकी बताई कहानी में भी काफी रोमांच था।
उन्हे भी भूलन बेल ने जब अपने चक्कर में डाल दिया तो वे लोग भी सारी रात जंगल -
जंगल घुमते रहे लकिन जब सुबह हुई तो उन्हे वामन मिला और बोला कि ‘‘ तुम लोग गांव
चलो , मैं बंगा भाऊ को लेकर गांव आ रहा हूं........!’’ गांव तब वामन तो आ चुका था
लेकिन बंगा काका अभी तक गांव नहीं पहुंचा। आज इस घटना को तीस साल से ऊपर हो चुके है
लेकिन तुकाराम ऊर्फ बंगा काका का कोई अता - पता नहीं। गांव के जानवरो को चराने गये
दयालू और वामन ने एक स्वर में एक ही बात बताई कि हमारे साथ बरसात के समय बंगा काका
जानवर चराने गया ही नहीं था। अब पूरे गांव में बंगा काका के अचचानक गायब हो जाने की
खबर चैकान्ने वाली थी। यदि बंगा काका वामन और दयालू के साथ गया नहीं था तो गांव आकर
वामन के नाले में बह जाने की खबर लेकर आने वाला कौन था.......! कहीं ऐसा तो नहीं कि
सातबड वाले बाबा ने हीं बंगा काका के रूप में आकर गांव वालो को वामन के बह जाने की
खबर बताई हो.........! हमारे साथ उस विरावान जंगल में जोर - जोर से ठहाके लगाने
वाला यदि बंगा काका नहीं था तो कौन था...........! कहीं ऐसा तो नहीं कि सातबड वाले
बाबा हम सबकी परीक्षा लेने के लिए उस रात जंगल में साथ - साथ रहे और फिर दयालू के
पास रूकने का बहाना करके अदृश्य हो गये।
दादी को जब तुकाराम ऊर्फ बंगा काका के गुम हो जाने की खबर मिली तो वह बीमार पड गई।
कुछ दिनो बाद कृष्ण जन्माअष्टमी के दिन दादी का भी अचानक निधन हो गया। आज भी पूरे
गांव वालो को यकीन नहीं हो रहा है कि वामन के नाले में बह जाने की खबर लाने वाला
युवक तुकाराम ऊर्फ बंगा काका नहीं था.....! दादा - दादी के निधन के बाद गांव का एक
घर बेचने के बाद हम लोग शहर आ गये। आज इस घटना को बीते कई दिन - साल हो चुके है।
बंगा काका की तस्वीर भी आंखो से ओझल हो चुकी है। जब मैं अपने बच्चो को अपने बंगा
काका की बाते बताता हूं तो उन्हे यकीन ही नहीं होता कि मेरे बाबू जी के पांच भाई
थे। इस गर्मी में जब ननिहाल गया था तो अचानक मेरे कदम सातबड वाले बाबा के पास जा
पहुंचे। उन सात बडो की परिक्रमा लगाते ही मुझे वह घटना याद आ जाती है जिसे याद करते
ही पूरा बदन सिहर उठता है।
इति,
बहुचर्चित रहस्य रोमांच से जुडी कहानी
नागमणी
रामकिशोर पंवार रोंढावाला
सुबह के छै बजे जब जेल का घंटा बजा तो सारे कैदी अपने - अपने बैरको से बाहर निकल कर
लाइन आकर खडे होने लगने शुरू हो गये । कैदियो की गिनती के समय जब मकलसिंह दिखाई में
नहीं दिया तो जेल पहरी रामदीन को बडी चिंता होने लगी । उसने मकलसिंह को आवाज लगाई
लेकिन अपने बिस्तर में सोया मकलसिंह जब बार - बार उसे पुकारे जाने पर भी जब नहीं
आया तो पहरी गिनती अधुरी छोड कर मकलसिंह के बैरक में जा पहुंचा । उसने वहां पर देखा
कि अपने बिस्तर में गहरी नींद में सोया हुआ था । जेल पहरी रामदीन ने मकलसिंह को जब
हिलाया - डुलाया तब भी वह नहीं उठा तो वह घबराहट के मारे सीधे बैरक नम्बर 16 से
जेलर साहब के बंगले पर जा पहुंचा । पसीने से लथपथ रामदीन ने जेलर शैतान सिंह के
दरवाजे की कुण्डी को दो - तीन खटखटाया तो नींद से अलसाये जेलर शैतान सिंह ने सुबह -
सुबह पहरी रामदीन के अचानक आने का कारण पुछा । जेल पहरी ने जब पूरी घटना जेलर शैतान
सिंह को सुनाई तो उनके पांव के नीचे की जमीन खसक गई । क्योकि जिस मकलसिंह से वे
अपने कमरे में रात के दो बजे तक उसकी कहानी को सुन रहे थे वह अचानक मर कैसे गया ।
वे अपनी नाइट ड्रेस में ही जेल के अंदर 16 नम्बर के बैरक में जा पहुंचे । जेलर
शैतान सिंह के आते ही जेल में होने वाली कानफुसी बंद हो गई और लोगो को जैसे सांप
सुंघ गया । इस बीच जेल कैम्पस से डाक्टर जौहर साहब भी अपने पूरे साजो - सामान के
साथ आ चुके थे । हाथो की नब्ज टटोलने के बाद डाक्टर जौहरी ने मकलसिंह की मौत की खबर
सुनाकर सभी को स्तब्ध कर दिया था।
पिछले चैदह सालो से जिला जेल में हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे
मकलसिंह के अच्छे चाल - चलन की वजह से इस बार सरकार ने उसे आजादी की वर्षगांठ पर
रिहा करने का कल ही फरमान सुनाया था । जेलर साहब स्वंय उसके बैरक में आकर उसकी बाकी
की सजा की माफी की जानकारी उसे दे चुके थे। अपनी सजा की माफी की जानकारी मिलने के
बाद से ही जब मकलंिसंह उदास रहने लगा तो उसके संगी -साथियो को बडा ही आश्चर्य हुआ ।
किसी तरह यह बात उडते - उडते जेलर शैतान सिंह के कानो तक पहुंची तो वे एक बार स्वंय
शाम के ढलने से पहले मकल सिंह से मिलने गये थे ताकि वे उसके नाते - रिश्तेदारो की
सही - सही जानकारी प्राप्त कर उन्हे मकलसिंह की रिहाई की जानकारी दे सके । पिछले
चार महिने पहले ही शैतान सिंह रीवा से टंªासफर होकर बदनुर जेल आये थे। अभी जेलर
साहब का परिवार नहीं आ पाया था। जेलर साहब की बिटिया कविता रीवा के इंजीनिरिंग
कालेज में फायनल इयर में थी इसलिए वे अपने परिवाार को नहीं ला सके थे। बार - बार
अपने नाते - रिश्तेदारो के नाम - पते पुछने के बाद भी जब मकलसिंह कुछ बताने को
तैयार नहीं हुआ तो जेलर साहब को बडा ही अटपटा सा लगा । अपनी सजा माफी के बाद से हर
समय हसंता - खिलखिलाता बुढा हो चुका मकलसिंह को इस तरह उदास देखकर जेलर शैतान सिंह
को काफी हैरानी हुई । मकलसिंह से मिलने के बाद जेलर शैतान सिंह अपने जेल रिकार्ड
में पडे उन पुराने रिकाडो के पन्नो से मकलसिंह के उस अपराध की तह में जाने का
प्रयास किया जिसकी वह पिछले चैदह सालो से जेल में सजा काट रहा था । जेल रिकार्ड में
मकलसिंह के गुनाहो की तह में जाने के बाद जेलर शैतान सिंह को पता चला कि मकलसिंह ने
अपनी उस जान से प्यारी पत्नी और साले को ही मार डाला था। दो जघन्य हत्याओं के आरोपी
मकलसिंह को चैदह साल पहले आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। अपनी पत्नी और साले की
हत्या के कारणो के पीछे की सच्चाई को जानने के लिए एक बार फिर जेलर शैतान सिंह ने
देर रात को मकलसिंह को अपने कमरे में बुलावा भेजा । मकलसिंह आया तो जरूर पर वह कुछ
भी बताने को तैयार नहीं था। काफी कुदरने के बाद मकलसिंह ने जो हत्या की कहानी बताई
उसको सुनने के बाद जेलर शैतान सिंह को यकीन नहीं हो रहा था। मकलसिंह की बताई कहानी
सही भी है या काल्पनिक ।
महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश की सीमा से लगे आदिवासी बाहुल्य बदनूर जिला मुख्यालय की
जिला जेल में आजीवन कारावास की सजा काटने वाला मकलसिंह दरअसल में नागपुर - भोपाल
रेल एवं सडक मार्ग पर स्थित ढोढरा मोहर रेल्वे स्टेशन से बीस - बाइस कोस दूर पंक्षी
- टोकरा नामक गांव का रहने वाला था। पंक्षी और टोकरा दो टोलो की मिली - जुली बस्ती
में रहने वाले अधिकांश परिवारो में आदिवासी लोगो की संख्या सबसे अधिक थी। सौ सवा सौ
घरो के इस वनग्राम पंक्षी - टोकरा में गरीब आदीवासी मकलसिंह की आजीविका जंगलो से
निकलने वाली वनो उपज पर आश्रीत थी। वह दिन भर जंगलो से जडी - बुटी एकत्र करता रहता
था। उसे जंगली - जुडी बुटियो का अच्छा - खासा ज्ञान था। उसके पास से लाइलाज
बीमारियों के उपयोग मे आने वाली जडी - बुटियो को औन - पौने दामो में खरीदने के लिए
महिने में एक दो बार हरदा और हरसुद के वैद्य - हकीम आया करते थे । महिने में सौ -
सवा सौ रूपये कमा लेने वाले मकलसिंह के पास अपने पुरखो की सवा एकड जमीन थी। जिसमें
महुआ के पड लगे थे। बंजर पडी जमीन में किसी तरह अपने हाड - मास को तोड कर बरसाती
फसल निकाल पाता था। वैसे तो मकलसिंह का टोकरा टोले का रहने वाला था । इस बिरली
आदिवासी बस्ती के एक छोर पर स्थित मिटट्ी का बना पुश्तैनी मकान में मकलसिंह अपने
परिवार के साथ रहता था। उसके परिवार में उसकी पत्नी सुगरती के अलावा उसकी बुढी मां
भी थी। मकलसिंह के मकान के पिछवाडे में उसका छोटा सा पुश्तैनी बाडा । उस बाडे में
बरसात के समय मक्का और ज्वार लगा लेने से वह अपने परिवार के लिए साल भर की रोटी का
बंदोबस्त तो कर लेता था लेकिन कई बार तो फसल के धोखा देने पर उसे यहां - वहां
मजदूरी करने के लिए भी जाना पडता था । मकल सिंह के बाडे में कई साल पुराना पीपल का
पेड था। इस पेड के नीचे उसके पुश्तैनी कुल देवो की गादी बनाई हुई थी । कई पीढी से
मकलसिंह और उसके पुरखे उस गादी की पूजा करते चले आ रहे थे।
साठ साल की आयु पार कर चुके मकलसिंह निःसंतान था । अपने माता - पिता की एक मात्र
संतान के घर में जब किलकारी नहीं गुंजी तो उसकी मां ने उससे बहुंत कहा कि वह दुसरी
शादी कर ले लेकिन अपनी घरवाली सुगरती से बेहद प्यार करने वाले मकलसिंह ने किसी एक
भी बात नहीं मानी । यहां तक की उसकी पत्नी सुगरती तक ने उससे कई बार कहा कि वह उसकी
छोटी साली कमलती को ही घरवाली बना ले लेेकिन वह नहीं माना। एक रोज जब अपने बिस्तर
से बाहर जाने को उठी सुगरती ने अपने बाडे में किसी ऊजाले को देखा तो वह दंग रह गई।
वह सरपट वापस दौडी आई और उसने अपने पति को सोते से जगा कर उसे वह बात बताई तो
मकलसिंह के होश उड गये। अब मकलसिंह को पुरा यकीन हो गया था कि उसकी मां रमोला ने जो
उसे अपने बाडे में नागमणी वाले नाग की जो बाते बताया करती थी दर असल में कहानी न
होकर हकीगत थी । लोगो का ऐसा मानना था कि जिस नाग की आयु सौ पार कर जाती है उसके
शरीर में एक ऐसा मणी आकार रूप ले लेता है जिसका प्रकाश में वह बुढा नाग काली
अमावस्य स्हाय रात में विचरण कर सकता है । मकलसिंह ने जब अपने बाडे में नागमणी के
ऊंजाले को देखा तो वह समझ चुका था कि उसके बाडे में ही नागमणी वाला नाग कहीं रह रहा
है । मकलसिंह ने हर महिने को आने वाली काली अमावस्या के अंधकार में स्हाय अंधेरी
रात को अपने बाडे में दिखने नागमणी के प्रकाश वाली आंखो देखी घटना पर चुप्पी साध ली
तथा उसने अपनी पत्नी सुगरती को भी यह कह कर चुप करा दिया कि यदि वह किसी को यह बात
बता देगी तो उसके घर परिवार में अनर्थ हो जायेगा।
पुरे दिन भर बैचन रहा मकलसिंह किसी भी तरह से उस नागमणी को पाना चाहता था लेकिन उसे
मिलेगा कैसे......! शाम होने के पहले मकलसिंह ने अपने घर की घास - फंूस काटने वाली
दरातियों की धार को और भी अधिक तेज करने के बाद तोता वाले पिंजरे के चारो ओर उसे इस
तरह बांध दिया कि यदि नाग उस पर हमला करे तो वह कट जाये । मकलसिंह ने पिंजरे के
नीचे का भाग खुला रखा था ताकि वह पेड के ऊपर से यदि पिंजरे को फेके तो वह मणी के
चारो ओर घेरा बना डाले । ऐसा सब करने के बाद वह बिना किसी को कुछ बताये रात के होते
ही अपने बाडे के उसी पीपल के पेड पर चढकर बैठ गया। इधर सुगरती ने मकलसिंह को काफी
खोजने की कोशिसे की लेकिन थकी - हारी सुगरती निराश होकर घर आकर सो गई । जब सुगरती
मकलसिंह को खोजने के लिए अपनी बस्ती की ओर निकली तो उसकी रमोला ने उसे कहा भी कि वह
मकलसिंह की चिंता न करे वह कहीं पीकर पडा होगा , जब सुबह होगी तो वह खुद ब खुद घर आ
जायेगा लेकिन सुगरती का दिल नहीं माना। इधर पीपल के पेड पर बैठे मकलसिंह को नींद
सताने लगी थी। उसके नींद की झपकी बस आने वाली थी कि उसे पेड के नीचे उसी ऊंजाले ने
चैका दिया। मकलसिंह को लगा कि अपने बिल से निकलने के बाद नागमणी वाले नाग ने अपने
शरीर से मणी को निकाल कर रख दिया है और वे उसके प्रकाश में विचरण करने लगा । अपने
मणी से कुछ दुरी पर नाग के पहुंचते ही मकलसिंह ने दरातियों की तेजधार से बंधे उस
पिंजरे को ठीक उस स्थान पर ऊपर नीचें की ओर गिरा दिया , जहां से प्रकाश आ रहा था।
अचानक अंधकार होता देख गुस्से से तमतमाये उस नागमणी वाले नाग ने उस पिंजरे पर अपनी
फन से जैसे ही वार किया उसकी फन कट कर दूर जा गिरी । सब कुछ देखने के बाद जब
मकलसिंह को इस बात का पूरा यकीन हो गया कि नाग मर चुका है तो वह धीरे - धीरे पेड से
नीचे उतर कर पिंजरे के पास आया और उसने उस मणी को अपने पास रख कर वह चुपचाप पिंजरे
को लेकर चला गया । सुबह होते ही मकलसिंह ने उस नाग को जमीन में गडडा खोद कर उसे दबा
दिया।
इस घटना को बीते कई साल हो जाने के बाद एक दिन मकलसिंह ने अपनी पत्नी सुगरती को वह
मणी वाली घटना बता दी । सुगरती को भरोसा दिलाने के लिए कमलसिंह ने एक रात उसे वह
मणी भी दिखा दिया। मकलसिंह ने सुगरती को बार - बार चेताया था कि वह यह बात किसी को
न बताये लेकिन नारी के स्वभाव के बारे में क्या कहा जाये कुछ कम है। सुगरती ने
नागमणी वाली बात अपने छोटे भाई मकालू को बता दी । एक दिन अपने बहनोई के घर आ धमके
मकालू ने कमलसिंह को उस मणी को दिखाने की जिद कर दी तो मकलसिंह भौचक्का रह गया। अब
मकलसिंह को मणी की और स्वंय की चिंता सताने लगी। उसे लगा कि कहीं उसकी पत्नी नागमणी
के चक्कर में कही उसके भाई के साथ मिल कर उसे मार न डाले इस डर से डरा - सहमा
मकलसिंह ने पूरे दिन किसी से बातचीत नहीं । उस रात शराब के नशे मे धुत मकलसिंह ने
अपनी कुल्हाडी से अपनी पत्नी और साले मकालू की जान ले ली । मकलसिंह को जब होश आया
तब तक सब कुछ अनर्थ हो चुका था। गांव में दो हत्या होने की भनक मिलते ही पुलिस भी आ
चुकी थी। मकलसिंह ने अपने अपराध को तो स्वीकार कर लिया पर उसने वह नागमणी वाली बात
किसी को नहीं बताई । मकलसिंह के जेल जाते ही उसकी बुढी मां उस सदमे को बर्दास्त
नहीं कर सकी और वह भी मर गई ।
अपनी रिहाई की खबर सुनाने आये जेलर शैतान सिंह को जब मकलसिंह अपनी आपबीती व्यथा
सुना रहा था तो शैतानसिंह जैसे कुख्यात जालिम जेलर की भी आंखे पथरा गई। मकलसिंह
कहने लगा कि साहब जिस मणी के चक्कर मंे उसने अपनी जान से प्यारी पत्नि को ही अपना
सबसे बडा दुश्मन समझ कर मार डाला तब वह जेल से रिहा होने के बाद बाहर जाकर क्या
करेगा । जेलर के बार - बार पुछने के बाद भी मकलसिंह ने उसे वह मणी के कहां छुपा कर
रखने की बात नहीं बताई। आज जब मकलसिंह मर चुका था तब बार - बार जेलर शैतानसिंह को
उसकी मौत पर और नागमणी के होने पर विश्वास नहीं हो रहा था । जेलर शैतान सिंह ने
स्वंय आगे रह कर मकलसिंह का पोस्टमार्टम करवाने के बाद उसकी लाश को लेकर उसके गांव
गया जहां पर गांव के अधिकांश लोग मकलसिंह और सुगरती को भूल चुके थे। एक खण्डहर हो
चुके मिटट्ी के मकान के पीछे पुराने पीपल के पेड के पास जेलर शैतान सिंह ने गांव
वालो की मदद से एक गडडा खुदवा कर वहीं मकलसिंह को दफन कर दिया। आज भी उसी पेड के
नीचे काली अमावस्या की रात को गांव के लोगो को ऐसा लगता है कि कोई व्यक्ति अपने
हाथो में ऊंजाले लिए उस बाडे में घुमता रहता है । जिस - जिस भी व्यक्ति को इस
नागमणी के होने की खबर मिलती वही व्यक्ति उस काली अमावस्या की रात को उसे पाने के
लिए मकलसिंह के बाडे में मौजूद पीपल के पेड की डाली पर पूरी रात बैठा रहता है ताकि
वह उस मणी को पा सके । गांव के लोगो के लोगो की बातो पर यकीन करे तो पता चलता है कि
हर अमावस्या की काली रात किसी ने किसी नागमणी को पाने वाले इंसान की बलि ले लेती
है। ऐसा पिछले कई दशको से चला आ रहा है। गांव के लोगो को आज भी काली अमावस्या की
रात को होने वाले हादसे की आहट स्तब्ध कर देती है ।
इति,
नोट:- इस कहानी का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई लेना - देना नहीं है।
रहस्य रोमांच से भरपूर सत्यकथा
‘‘ डब्लयू डब्लयू डाट काम ’’ की वंदना........!
रामकिशोर पंवार रोंढावाला
आज फिर अमावस्या की काली रात थी। शाम को अपने सहपाठी के साथ टूयुशन पढने घर से
निकला डब्लयू जब देर रात तक घर नहीं आया तो घर के लोगो की चिंता बढना स्वभाविक थी।
डब्लयू के दोस्तो के घर से निराश लौटी दोनो बहनो शर्मिला - निर्मला ने जब उसकी
मम्मी को डब्लयू के उनके दोस्तो के घरो पर न होने की खबर सुनाई तो वह गश्त खाकर गिर
गई। आज सुबह ही इन्दौर जाते समय डब्लयू के पापा ने उसे बार - बार चेताया था कि ‘‘
आज अमावस्या है , डब्लयू को टुयूशन पढने मत भेजना ..........! लेकिन पता नहीं कब
डब्ल्यू अपने दोस्तो के साथ अपनी उसी क्लास टीचर के पास टुयूशन पढने चला गया जिसके
पास वह पिछले दो सालो से आ रहा था। पिछले कई दिनो से डब्लयू सोते समय किसी वंदना का
नाम लेकर उसे पुकारते हुये अचानक गहरी नींद से जाग उठता था। ऐसे समय उसका पूरा बदन
पसीने से तर - बतर हो जाता था। पिछले एक साल से उसके घर परिवार के लोगो ने उसकी इस
अजीबो - गरीबो बीमारी को लेकर डाक्टरो से लेकर तांत्रिक - मांत्रिको - ओझा - फकीरो
के पास खाक छानने में कोई कसर नहीं छोडी लेकिन किसी की भी समझ में यह नहीं आ रहा था
कि आखिर यह वंदना है कौन....! इसका उस ग्यारह साल के डब्लयू से क्या रिश्ता - नाता
है।
डब्लयू के माता - पिता तथा रिश्तेदारो एवं मित्रो ने उसके स्कूल में पढने वाली सभी
लडकियो में वंदना नामक की लडकी की तलाश की लेकिन सबसे बडा आश्चर्य इस बता का रहा कि
पूरे स्कूल में दो हजार लडकियो में किसी का भी नाम वंदना नहीं था। इस वंदना ने पूरे
परिवार के साथ हर महिने की उस काली अमावस्या की पूरी रात मंे सभी का जीना दुभर कर
दिया था। डब्लयू उसके परिवार में सबसे छोटा सदस्य होने के कारण सबका प्रिय था। उसने
पिछले साल ही ग्यारह साल की उम्र में तीसरी क्लास पास की थी। भारत सरकार द्धारा
संचालित बारहवी बोर्ड मान्यता प्राप्त सरकारी स्कूल में पढने वाला डब्लयू पूरी
क्लास में अव्वल नम्बर पर पास होने वाला छात्र था इसलिए पूरी क्लास का वह चेहता था।
पिछले साल अप्रैल माह की अमावस्या के बाद से शुरू ही इस लाइलाज समस्या से पूरे
परिवार की शारीरिक - मानसिक - आर्थिक स्थिति डावाडोल हो चुकी थी। आज फिर अमावस्या
की इस काली स्हाय रात में डब्लयू का इस तरह गायब हो जाना पूरे परिवाद चैन को गायब
कर चुका था। पुलिस को भी इस बारे में सूचना दे दी गई थी कि एक ग्यारह साल का लडका
अपने घर से टुयुशन से जाने के बाद से गायब है। सिटी कोतवाली ने पूरे क्षेत्र को
वायरलैस सेट पर इस बात की जानकारी भेज दी थी। इधर धनश्याम भी अचानक अपने छोटे बेटे
के रहस्यमय ढंग से गायब होने की खबर से इंदौर से भागा - भागा दौडा भोपाल आ चुका था।
अपने परिवार में दो भाई - दो बहनो में डब्लयू डब्लयू डाट सबसे छोटा था। उसके पिता
मध्यप्रदेश शासन की सरकारी नौकरी में भोपाल पदस्थ थे। सरकारी काम - काज की वजह से
उसे अकसर इंदौर - ग्वालियर - जबलपुर - आना - जाना पडता था।
उसका नाम डब्लयू नहीं था लेकिन जब उसका जन्म हुआ था उस दिन उसके पापा ने अपने घर पर
इंटरनेट कनेक्शन लिया था। इसलिए वे नेट पर किसी साइड में कोई जानकारी सर्च कर रहे
थे उसी समय उसके जन्म की खबर मिलने के बाद से ही उसके बडे पापा उसे ‘‘ डब्लयू
डब्लयू डाट काम ’’ के नाम से ही उसे पुकारते थे। बडे पापा की देखा देखी घर के सभी
लोग उसे या तो ‘‘ डब्लयू ’’ या फिर ‘‘ डाट काम ’’ के नाम से पुकारने लगे थे। झीलो
के शहर भोपाल जिसे ताल - तलैयो का शहर भी कहा जाता है। भोपाल को लोग भले ही नवाबो
के शहर के रूप में जानते हो लेकिन सच्चाई यह है कि भोपाल को बसाने वाले राजा भोज थे
जिन्होने भोजपुर में विशाल एतिहासिक शिव मंदिर और इस शहर में ताल - तलैया खुदवायें।
धार के राजा भोज के वंशजो की लम्बी चैडी श्रंखला है। मध्प्रदेश के सात जिलो की
बहुसंख्यक पंवार जााित के लोग स्वंय को राजा भोज के वशंज मानते चले आ रहे है। इसी
भोपाल शहर में पुरानी जेल के पास मध्यप्रदेश फायर पुलिस स्टेशन भी बना है। इसी
स्थान के आसपास किसी कालोनी में डब्लयू अपने परिवार के साथ रहता था। जैसे - जैसे
अमावस्या की काली रात कटने लगी तो घर परिवार की चिंता भी बढने लगी। सुबह होते ही
अचानक अपने स्कूल का बैग लेकर डब्लयू को कालोनी कैम्पस में आता देख सभी लोग भौचक्के
रह गये। उसे आता देख पूरी कालोनी में कोहराम मच गया। किसी को भी अपनी आंखो पर भरोसा
नहीं था कि वे जो देख रहे है वह सच भी है या नहीं.....! डब्लयू की खबर मिलते ही
दौडी आई उसकी मम्मी का रो - रोकर बुरा हाल था। उसे गोदी में लेकर जाने लगे तो
डब्लयू ने पीछे मुड कर देखा और पुकारा ‘‘ वंदना तुम भी मेरे साथ मेरे घर पर चलो
ना.........!’’ सुबह - सुबह पहली बार डब्लयू को उस अदृश्य तथाकथित वंदना का नाम
लेकर बडबडाते देख आसपास भीड का शक्ल में खडे लोगो का हाल बेहाल था। किसी तरह उसे घर
लाने के बाद जब पास के ही किसी युवक ने सामने वाली गली से मौलवी साहब को बुला लिया
लेकिन मौलवी साहब की आठ -दस घंटे की पूरी मेहनत पर जैसे पानी फिर गया। आखिर किसी ने
सलाह दी कि क्यों न इसे मलाजपुर गुरूसाहब बाबा की समाधी पर लेकर चले हो सकता है कि
बच्चा ठीक हो जाये। लोगो की सलाह को उचित मान कर पूरी कालोनी के गिने - चुने लोग एक
किरायें की जीप लेकर सीधे चिचोली के पास स्थित गुरू साहेब बाबा की समाधी पर ले आये।
पहले तो डब्लयू यहां आने को तैयार नहीं हुआ लेकिन उसे किसी तरह से सब लोगो ने अपी
बाहों में जकड कर लाया। समाधधी पर लाने के पूर्व ही उसे सामने बह रही बंधारा नदी
में नहलाया गया उसके बाद बाबा की समाधी के पास बैठे बाबा के सेवक ने उसके सिर पर
पानी के छीटे मारे । पानी के छीटे पडते ही डब्लयू के शरीर में प्रवेश कर चुकी वंदना
ने बताया कि दरअसल में यह बालक उसके पिछले जन्म का पति है। भोपाल के पास ही बखरिया
गांव के रहने वाले रमेश की गांव की छोरी वंदना से बारह साल पहले शादी हुई थी। वंदना
के हाथो की मेंहदी अभी सुखी भी नहीं थी कि वह एक दिन अपने पति रमेश के साथ भोपाल
में झील में नाव पर बैठी सैर कर रही थी कि अचानक उनकी नाव पलट गई और दोनो पति -
पत्नि की मौत हो गई। नाव का नावीक तैरना जानता था इसलिए वह बच निकला लेकिन मैं तो
अपने पति के साथ ही इसी झील में डूब कर मर गई। पुलिस और गोताखोरो ने मेरे पति की
लाश तो ढुंढ निकाली लेकिन मेरी लाश उन्हे आज तक नहीं मिली जिसकी चलते उसे अकाल मौत
से प्रेतयोनी में जाना पडा। पिछले साल अमावस्या की रात की पूर्व संध्या पर डब्लयू
को जब मैने देखा तो मुझे अपने पति रमेश की डब्लयू से हुबहू मिलती शक्ल के कारण मैं
उसके पीछे पड गई। इन लोगो को याद होगा कि पिछले साल अप्रैल माह में डब्लयू भी नांव
से अवानक नीचे झील में गिर गया था। दरअसल में मैने ही उसे गिराया था लेकिन जब मुझे
पता चला कि यदि यह आज भी अकाल मौत मर जायेगा तो मुझे मुक्ति कौन दिलवायेगा......!
इसलिए मैने ही डब्लयू को अवनक झील की गहराई से ऊपर की ओर फेका और ऐ लोग उसे तैराता
देख बचा लाये। वंदना की कहीं बाते सुनने वालो को सौ प्रतिशत सही लग रही थी क्योकि
उस शाम जो हादसा डब्लयू के साथ हुआ था उसके सभी प्रत्यक्षदर्शी भी आज यहां पर मौजूद
थे। वंदना से बाबा ने डब्लयू को छोडने का संकल्प लेने को कहा लेकिन काफी ना - नुकर
के बाद वह इस शर्त पर मानी की उसे गुरू साहेब बाबा प्रेत योनी से मुक्ति दिलवाये
ताकि वह फिर जन्म लेकर अपने पति के रूप में डब्लयू को पा सके। वंदना की कहीं बातो
पर सभी को सहमति थी क्योकि मात्र ग्यारह साल के इस युवक की अभी शादी तो होना है
नहीं यदि उसकी शादी के बहाने किसी को प्रेत योनी से छटकारा मिल सकता है तो इससे बडी
बात क्या होगी। आखिर वंदना को वचनबद्ध करने के बाद वंदना ने डब्लयू की देह से बाहर
निकल कर अपने अन्यत्र स्थान की ओर प्रवेश कर लिया। आज डब्लयू की शादी की उम्र हो
चुकी है लेकिन तीस साल के इस बांके युवक को इंतजार है कि उसकी वंदना उससे एक बार
फिर शादी करेगी......!
इति,
रहस्य रोमांच से भरपूर सत्यकथा
पनघट की पनहारियां
सत्यकथा:- रामकिशोर पंवार ‘‘रोंढवाला’’
उस रात शायद पूनम की रात थी तभी चांद भी अपनी पूरी जवानी में था. गर्मी महिनो की
रातो में गांव के लोग अपने घर के आंगन में खाट पर बिछौना या फिर आंगन में गोबर से
लीपी - पोती गई जमीन पर गोदडी बिछा कर ही चैन से सो जाते थे. दिन भर की गर्मी से
बदहाल गांव के लोग काम के बोझ के चलते इतने थक जाते कि बिस्तर पर गिरते ही सो जाते
उन्हे तो तब होश आता जब चिडिया चहकने लग जाये.अपने घर के आंगन से लगे चम्पा के पेड
के नीचे गोबर से लीपी जमीन पर लगे बिछौना में दादी की गोदी में लेटा मै उनसे कोई
कहानी की जिद कर रहा था. मेरे साथ आसपास के हम उम्र लडके - लडकिया भी जमा हो गये
थे. दादी कहानी इस शर्त पर सुनाती थी कि उन्हे हुंकारे लगाने होगे. इसके पीछे का
कारण यह रहता था कि यह न लगे कि कहानी सुनते - सुनते कहीं हम सो तो नहीं गये. मुझे
पता नहीं कब नींद लग गई और मैं सो गया. गांव में शौच के जाना हो तो गांव के बाहर ही
जाना पडता है. रात को मुझे भी शौच के लिए जाना पडा तो मैं घर से लोटा में पानी भर
कर अकेला गांव के बाहर खाली खेतो की ओर निकल पडा. उस रात को कितना बज रहा था पता
नहीं क्योकि गांव में किसी के पास घडी नहीं होती थी. लोग दिन में अपने शरीर की छाया
से और रात को तीन तारो की तीरखंडी से रात के पहर का पता लगा लेते थे. मैं गांव की
गली से होता हुआ खेतो की पगडंडी के रास्ते से चला जा रहा था.पूणम की रात में मुझे
गांव के बाहर किसी पनघट पर पानी भरने और महिलाओं के खिलखिलाने की आवाजे सुनाई दे
रही थी. मैं कुछ पल के लिए ठहर गया. रात चूंकि काफी हो चुकी थी इसलिए मुझे इस बात
पर हैरानी हो रही थी कि गांव की महिलाये आखिर इतनी रात को कुओं पर पानी भरने क्यों
आई है. दादी मां अकसर बताया करती थी कि पूणम और अमावस्या की रातो में गांव के आसपास
के कुओ की पनघट पर ऐसे शोर सुनाई देता रहता है. इन रातो में ऐसा शोर का सुनाई देना
मतलब उस कुंआ के आसपास कोई चुडैल - डायन रहती है. दादी मां की कहीं बात का संकेत हो
यह निकलाता था कि कही कुछ गडबड है. गांव के बाहर जाने वालो रास्तो पर यूं तो कई
पनघट पडते है लेकिन गांव के करीब कोसामाली के पनघट पर इस तरह की हरकते का होना मेरे
लिए चिंता जनक बात थी. मैं भी शौच के लिए कोसामाली के करीब खाली पडे खेतो की ओर
निकला था. मैने जो अभी सुना था उसके अनुसार जो कुछ भी होता है वह गांव की सीमा के
बाहर होता है. गांव की सीमा से बाहर खुदे जामाली और कोसामाली के दो कुये पूरे गांव
की प्यास बरसो से बुझाते चले आ रहे थे. गांव की बसाहट कब हुई कोई नही जानता लेकिन
कोई यह भी नहीं जानता की इन कुओ को कब किसने खुदवाया था. लोग खेत खरीदते गये उसके
साथ कुयें भी उन्हे मिलते गये. गांव के इन दोनो कुओं के बारे में कहा जाता कि इनमें
से एक कुयें के पास पूरी हरी - भरी अमराई है. जिसकी डाल पर अकसर चुडैल झुला बंाध कर
झुला झुलती है. इन झुलो में एक झुला छोटे दुध मुंहे बच्चो का भी होता है जिसमें
रोते - बिलखते बच्चो को डाल कर उसे झुला दिया जाता है. दादी मां कहती थी कि बच्चे
को जन्म देते समय तथा अन्य कारणो से हुई अकाल मौत की शिकार महिलायें ही डायन -
चुडैल बनती है. इनके उल्टे पांव होते है तथा ए अकसर श्रंगार करती - खाना पकाती -
नहाती - कपडे धोती - बच्चो को दुध पिलाती दिखाई देती है. थोडी सी भी आहट होने पर सब
की सब कुयें में छलांग लगा लेती है. कोसामाली - जामली के कुये के बीच आधा फलंाग का
भी अंतर नही था. गांव के रास्ते के एक ओर दोनो कुये तथा दुसरी ओर पीपल के पेड के
नीचे गांव के जागृत दैय्यत बाबा तथा प्राचिन हनुमान जी का देवस्थान है. कोसामाली और
जामाली के कुओं पर अकसर अमावस्या और पूर्णिमा क