क्यों भुझ आज दीपक ये रहा
ना हवा का झोंका यहाँ
ना पतंगा कोई फडफडा रहा
फिर कोई मुझे आज बताये
आज दीपक ये क्यों भुझ रहा !

क़त्ल दो ही तो हुए थे
दिवाली के वो पटाखे
कुछ ही तो चले थे ,
मानवता में मानव ही तो मर रहा
फिर ये पतंगों को छोड़
आज दीपक ये क्यों भुझ रहा !

अहिंसा में ही तो हिंसा कि
मन उसका दुख कर
उसको ही तो लुट लिया
पर्दा इश्वर का लिखलाकर
बस इतने से क्यों
आज दीपक ये भुझ रहा !

आज इस अँधेरी रात में
दिवाली के दीपक का क्यों उजाला नहीं
लाख कोशिश कि आज तो मेने
पर न जाने क्यों तू जला नही
जिन्दगी में फिर अँधियारा आ रहा
आज दीपक ये भुझ रहा !

भुझते - भुझते एक मेरी तो भी सुन
इस लो कि एक "किरण" दे
मेरी बन के वो जलती रहे
जिन्दगी का अंधियारा हटाजा
कोई रोक सके तो रोक लो
आज दीपक ये भुझ रहा !
आज दीपक ये भुझ रहा !!

 

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