आज़ादी का त्योहार
[महेंद्रभटनागर]

लज्जा ढकने को
मेरी खरगोश सरीखी भोली पत्नी के पास
नहीं हैं वस्त्र,
कि जिसका रोना सुनता हूँ सर्वत्र !
घर में, बाहर,
सोते-जगते
मेरी आँखों के आगे
फिर-फिर जाते हैं
वे दो गंगाजल जैसे निर्मल आँसू
जो उस दिन तुमने 
मैले आँचल से पोंछ लिए थे ! 
मेरे दोनों छोटे 
मूक खिलौनों-से दुर्बल बच्चे
जिनके तन पर गोश्त नहीं है,
जिनके मुख पर रक्त नहीं है,
अभी-अभी लड़कर सोये हैं,
रोटी के टुकड़े पर, 
यदि विश्वास नहीं हो तो
अब भी
तुम उनकी लम्बी सिसकी सुन सकते हो
जो वे सोते में 
रह-रह कर भर लेते हैं !
जिनको वर्षा की ठंडी रातों में
मैं उर से चिपका लेता हूँ,
तूफ़ानों के अंधड़ में
बाहों में दुबका लेता हूँ !
क्योंकि, नये युग के सपनों की ये तस्वीरें हैं !
बंजर धरती पर
अंकुर उगते धीरे-धीरे हैं !
इनकी रक्षा को
आज़ादी का त्योहार मनाता हूँ !
अपने गिरते घर के टूटे छज्जे पर 
कर्ज़ा लेकर
आज़ादी के दीप जलाता हूँ !
अपने सूखे अधरों से
आज़ादी के गाने गाता हूँ !
क्योंकि, मुझे आज़ादी बेहद प्यारी है !
मैंने अपने हाथों से
इसकी सींची फुलवारी है !
पर, सावधान ! लोभी गिद्धो !
यदि तुमने इसके फल-फूलों पर 
अपनी दृष्टि गड़ाई,
तो फिर
करनी होगी आज़ादी की 
फिर से और लड़ाई !
 

 
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