अनबुझ प्यास
कुदरत को दोष नहीं देतीं
तुम मुझे टोकती रहती हो
पौधे प्यासे हैं धरती के
और प्यासी मेघों की धरती
तकती रहती है नभ को सदा
सारी ये बरखा पीकर भी
तुम मुझे क्यूँ प्यासा कहती हो
बादल प्यासे हैं सागर के
और सागर प्यासा नदियों का
नदियों को पीकर भी जब ये
सागर है प्यासे का प्यासा
तुम मुझे क्यूँ प्यासा कहती हो
जलता है जलाता है पृथ्वी
क्या प्यास सूर्य की कभी बुझी
कल कल अथाह सागर भी पी
जब प्यास सूर्य की नहीं बुझी
तुम मुझे क्यूँ प्यासा कहती हो
कितनों की प्यास बुझाता ये
ख़ुद चाँद भी कितना प्यासा है
तारों के संग अतृप्त उदास
ये सूरज को पी जाता है
तुम मुझे ही प्यासा कहती हो
धरती की तरह मेघों की तरह
रोको न मुझे बस पीने दो
सागर की तरह सूरज की तरह
मुझे चाँद सा प्यासा कहती रहो
पीने से नहीं मुझको टोको
इन सब पर रोक लगाओ प्रथम
नहीं तो मुझको रोको नहीं
हम प्यासे ज्यूँ जीवन के
मौत हमारे जीवन की
तुम मुझे ही प्यासा कहती हो।