. ...और
बातें हो
जायेंगी
-अजन्ता
शर्मा
आओ
हम साथ बैठें..पास बैठें।
कभी खोलूँ
कभी
पहनूँ मैं अपनी अँगूठी।
तुम्हारे चेहरे को
टिकाए
तुम्हारी ही कसी हुई मुट्ठी।
चमका करे धुली हुई मेज़
हमारे नेत्रों के अपलक परावर्तन से।
और तब तक
अंत:
मंडल डबडबाए
प्रश्न उत्तरों के
प्रत्यारोपण से।
विद्युत बन बहे
हमारे साँसों के धन-ऋण का संगम
हाँ प्रिय!
नहीं
चढ़ायेंगे हम
भावनाओं पर शब्द रूप आवरण।