बादल
बादल हे , अनंत
अम्बर के
तुम्हारा अंतर
वज्र कठोर
जब नील निशा
के अंचल में
सो जाता दीन-दुर्बल यह संसार
तब तुम
अनल बाला- सी
छाती में
जलन छिपाये,निज
कामनाओं के विविध
प्रहारों से
छेड़ते क्यों,जगती के उर का तार
तम निशि का
भोर, न हो पाये कभी
विस्मय में
भरकर दिखलाते
तुम
अपना आलोक
विविध प्रकार
हिलती धरा
की झाँकी
दिखलाकर
हवा के झोंके में भरते मौत की झंकार
अम्बर की घोर विकलता में,धरती के
आकुल दाहों को दिखलाकर कहते, इसी
शून्यता के सिंधु में एक दिन सब कुछ
डूब जाएगा, इसी
में सिमटा
हुआ है
निखिल जीवों
के प्राणों
का सार
माना कि स्वर्ग –धरा
को एक
पाश में बाँधकर
दिखलाने की ,नियति से मिला है तुमको अधिकार
मगर क्यों वसुधा के
ऊपर महाशून्य का घेरा है
रजनी के ऊँचे चढ़ने से, होता क्यों यहाँ
सबेरा है
आज तक बतला
सके
तुम, तो फ़िर
वृथा है
तुम्हारा यह कहना,तुम पर है तीनो लोकों का भार
कैसे मान
लूँ, कि महाश्वेत
गजराज गंड
से
बहे जा रहे,
सर- सरित की जलधारा तुम हो
तेरा ही मराल, जल- दर्पण
के नीचे चलता है
संगीतात्मक ध्वनि की कोमल अँगड़ाई को,तुम्हीं
मादकता की लहरों से ऊपर उठाकर,पहुँचाते हो
तुम्हारा यह
सोचना
है, निराधार
सूरज- चाँद
सब मलिन
जीते,
जो
तुम न
लगाते, अपना आलोक
उन्हें उधार
तुमको प्राप्त
नहीं, मानव
का, मर्मोज्वल उल्लास
शायद इसीलिए
रखते तुम,
इतना क्षुद्र
विचार
मानव की शीतल
छाया में रहकर
निज कृति का
ऋण शोध
करूँगा, भुलाकर अपना कटु संघर्षण
भव- मानस के
इस मिलन
तीर्थ – भूमि
पर
जग-जीवन को नव स्वप्नों की ज्योति वृष्टि में अमर
स्नान कराकर, स्वर्ग- धरा को एक पाश में
बाँधूँगा
मिले नियति के भाग सभी को, सबकी पूरी हो
चाह
शृंग पर चढ़कर
तुम करते
नहीं, ऐसा मंत्रोच्चार