छोटे छोटे स्टेशन देहाती
इधर से राधागाँव
उधर से तुपकाडीह
बीच में गलियाँ
जहां छोड़ आया मैं
खुदको
दोस्तों संग
साइकिल पर
घंटों का रास्ता
मिनटों में तय करते हुए |
जहां साढ़े चार बजे
मैं आज भी दोस्तों को आवाज़ देता हूँ -
सोनू ! बाबू !

जहां माँ आज भी शाम को
पड़ोसन
नहीं बहन के संग बैठकर
बुनती है गर्म स्वेटर |
जहां खिड़की की ओर नज़र कर
कल डराकर सुलाया था माँ ने मुझे -
बाहर
लोमड़ी
बैठी
है |
वो खिड़की अभी जाने किसे सुलाती होगी ?

जिसे आज भी मैं अपना घर मानता हूँ
नहीं ये मेरा घर नहीं है |
वक़्त नहीं थमता
कदम थमते हैं |
वक़्त क्यों नहीं थमता ?
ग़र थमता तो रोक देता उसे |
गेंद से दीवाल पर खेलता था
जाने वो निशां मिटे होंगे कि नहीं ?

वहीँ ज़मीन पर
नींबू का घाना मंडप
जिसमे कोई अकेला नींबू
टूटने से छूट जाता
और तब दिखलाई देता
जब पककर लाल बहुत हो जाता -
जैसे मेरे(?) आँगन में
सुबह को शाम का सूरज
या शायद
शाम को सुबह का सूरज
छूटकर रह गया पूरब में |

छूटकर रह गया वहां दिन
छूटकर रह गया मेरा दिन वहां
जैसे मैं छूटकर रह गया वहाँ ||

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