भय है, भूख है नंगी
गरीबी का तमाशा,खिस्सों में छेद कई-कई
चूल्हा गरमाता है आँसू पीकर
आंटा गीला होता है,पसीना सोखकर
कुठली में दाने थमते नहीं
स्कूल से दूर बच्चे दूर-दूर खेलते
रोटी नहीं , गम खाकर पलते
जवानी में बूढ़े होकर मरते
कर्ज की विरासत का बोझ आश्रित को देकर
कैसे-कैसे गुनाह इस जहां के
हाशिये का आदमी अभाव में बसर कर रहा
धनिकाओं की कैद में धन तड़प रहा
गोदामों में अन्न सड़ रहा
गरीब अभागे बदल रहे करवटे भूख लेकर ।
कब बदलेगी तस्वीर, कब छंटेगा अंधियारा
कब उतरेगा जाति-भेद का श्राप
कब मिलेगा हाशिये के आदमी को न्याय
कब गूंजेगा धरती पर मानवतावाद
कब जागेगा देश सभ्य समाज के प्रति स्वाभिमान
ये हैं सवाल,दे पायेंगे जबाव धर्म-सत्ता के ठीकेदार
काश मिल जाता
मैं और मेरे जैसे लोग जी लेते
चैन की साँस पीकर ।