मुख से फेनिल गाढ़ा खून उगलते
अन्दर से झुलसाती आग
नाक के संकरे सुरंगों में कैद
घिनौनी बू, जली चर्बी की झाग
महसूस करो
तुम्हारे चेहरे की खाल गल रही है
अन्दर मुड़कर धुंधलाती तुम्हारी दृष्टि
लाल दरारों के जाल सी तुम्हारी एक आँख
और दूसरी अपने खोप में सड़ी गली सी
चीख भरी आग की लहरों में लथपथ
आहूत तुम आते हो मुझतक
जले बाल की बदबू से वातावरण लाल
और खून तो जैसे नसों से फूटकर
सूख गया बुलबुले छोड़ता, उबलकर
महसूस करो
अपने पिघले हुए दिमाग को
जो तुम्हारे कान से रिस रहा है
और ये खालीपन
तुम्हारे खोपड़े को अन्दर खींच रहा है
विकृत कंकाल तुम्हारा हिलने को
राख पर खून में लथपथ उलीच रहा है
धीरे धीरे मर रहे हो
जल्दी आये मौत-
एकालाप कर रहे हो
कहते थे आग लगी है
तुम्हारे अन्दर
नंगे पड़े हो पिघलकर
सच पूछो तो क्या फर्क पड़ता है
तुम आदमी हो? तरल के धुआं?
पर इतना साधारण अंत किसी आग का
कभी नहीं हुआ||
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