घर में बैठे
जब मुझे घर की याद आई
खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला |
मेरी सूरत देखती है कि बदला नहीं-
जब उगने-उगाने को कुछ नहीं बचता
दाढ़ी उग-उग आती है |

नयी ब्लेड को चमकाकर
बेवकूफ की तरह मैंने कहा-
“अँधेरा छोटे-छोटे बालों की तरह उगा है
काटोगे तो फिर से उग जायेगा |”
पर खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला |

अँधेरा मेरे कमरे के आकार का अँधेरा था |
मेरा साया दीवार पर डोलता सा
तिनकों में बना वो पिंजड़ा खोलता सा
नहीं खुला !
पिंजड़ा सहित पेड़ पर उड़ जा बैठा;
मैं स्वतंत्र हूँ ?
मेरा चेहरा एक समतल सीढ़ी था
जिस पर मैं चढ़ता-उतरता…
नहीं, चलता था |

सामने एनरीके की तस्वीर
और उसकी दाढ़ी
अलबत्ता, टेबुल पर मेरी |
मेरा कटघरा मेरी दाढ़ी में सिमट गया है
दाढ़ी में समय खपाकर
दाढ़ी में कलम खपाकर
ज़िन्दगी का अजीब जोकर लगता हूँ
इसी खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला |

मैं अपनी ही दाढ़ी पर
उगा हुआ था |

your comments in Unicode mangal font or in english only. Pl. give your email address also.

HTML Comment Box is loading comments...
 

Free Web Hosting