देव
विभूति से मनुष्यत्व का यह पद्म खिला
जिसके
अभिवादनों
की
गूँज
,
सृष्टि
के
सहस्त्रों आननों
की
रूप
-रेखाओं
में
गूँजते
हैं
जो स्वयं प्रकृति का समानान्तर
,
सुंदर है
जो
स्वयं
खड़ा
होकर
निहारता
और
विचारता
है
कहाँ
अपना
बिम्ब
विजरित
करना
था
कहाँ
हो
चुका
,
कहाँ
-
कहाँ
और करना है
ऐसे देव की निन्दा हम कैसे सुन सकते
हैं
जिस
देव
की
विभूति
से
जीवन
कंदर्प
में
रक्त
-
मांसमय
मनुष्यत्व
का
पद्म
खिला
जिसके कर स्पर्श से धरती का पहला मानव जागा
जिसके
कर
स्पर्श को पाकर अंतिम मानव सोयेगा
जिसके
रुद्र -
रूप
से
निखिल
ब्रह्मांड
हिलता
जिससे अभिशापित होकर मरुदेश
के
शून्य
निशीथ
में
पवन रोता
,
ऐसे
देव
की
कैसे
करें
हम
निंदा
मगर
धरा
धूल
में
,
लोट
रहे
तृष्णा
के
भुजंग
अपने विष की फुफकारों से मनुष्यत्व के पद्म को
सदैव
मर्माहत
किये
रखता
,भयमुक्त
खिला
नहीं
रहने
देता
मही
मुक्ति
का
अमृत
स्वाद
चखने
नहीं
देता
उर -
उर
को
डँसता
,
विशिख वन
आँखों
में
चुभता
कहता मनुज जीवन
का
मणिदीप
सदा
अंधकारमय
रहा
है
देव
दम्भ
के महामेघ में सब कुछ
हविष्य
हो गया है
इसलिए जीवन की
प्यास समेटे मनुज
,
जग में जीता
तनु
से
इतिहास
लपेटे
इस दुनिया से विदा हो जाता