धरा पर आया है वसंत
शिशिर ,
सत्कार ,
भीत ,
कंपित पावक
शमित
विश्व की नग्न–भग्न डाली को करने पल्लवित
प्राची का
रुद्ध कपाट
खोलकर, स्वर्गोन्नत
सौंदर्य से
सजल किरीट-
सा उज्ज्वल
देव वृतियों के संगम में , भू को स्नान कराने
देखो , स्वर्ग से धरा पर
उतर आया
वसंत
चतुर्दिक
बिछ गईं
हरित, पीत छायाएँ सुंदर
दूर्वा से भरा भू,दीखने लगी निश्छल, कोमल
लगता शीत, ताप, झंझा के बहु वार से सह
जग को आकुल देख, सुरधनु सा अपना रूप
बदलकर मृति संसृति, नति, उन्नति में ढल
सुषमा,मुकुल सदृश स्वयं धरा पर आई उतर
खोलकर कोमल
कलियों का
बंद अधर
पल्लव- पल्लव में , नवल रुधिर को भर
मानो कह
रहा हो
वसंत, मैं सर्वमंगले
निर्विकार,शांत शून्य निलय से ज्योतिकाय
चैतन्य लोक
सा आरोहों
पर निहारों का
केतन फ़हराता,विभक्त को युक्त,रुद्ध को मुक्त
खंड को पूरित, कुत्सित
को सुंदर
करने
गंध तुहिन
से ग्रंथित,
रेशमी पट
सा
मसॄण समीरण को
लेकर इस
भूखंड पर
आया हूँ उतर , जिससे
आत्म-विजय के
स्मित प्रकाश से,विस्फ़ारित हो यह जग घर