एक अनोखा दर्द

एक दिन

शाम के वक्त

झील के किनारे

टहलते हुए मैंने

एक आह ! सुनी

दर्द में लिपटी आह !

मैंने चारों तरफ

निगाह दौड़ाई

पर कहीं कोई नज़र नहीं आया

सब कुछ मेरी समझ से परे था

किन्तु मेरा मन,

उस आवाज़ से,

तड़प उठा था,

कि तभी फिर से

आवाज़ आई

कंपकंपाती आवाज़

जो मेरे पास थी बहुत पास

मैंने देखा

मुझसे कुछ कदम पर

कुछ हिल रहा है

मैंने पास जाकर देखा

एक नन्हीं सी मछली को

मैंने महसूस किया उसके दर्द को

मैं तड़प उठी उसकी दर्द भरी आह ! से

मैं उसके करीब गई

और उसको प्यार से सहलाया

न जाने कब मेरी आँखों से

आँसू निकलकर बहने लगे

क्योंकि

अब मैं समझ चुकी थी

उसके दर्द को

हाँ बिल्कुल समझ गई

क्योंकि ये दर्द मेरा ही दिया हुआ था

अभी दो दिन पहले ही तो

यूँ ही टहलते हुए मैंने

इसी किनारे से

उठाया था एक मछली को

अपने एक्वेरियम की

शोभा बढ़ाने के लिए

तब आभास भी न था

किसी भी दर्द का,

किसी भी तड़पन का,

न ही किसी बिछोह का

पर आज़ सब समझ आ रहा है

मैं वापस लाऊँगी उसको

हाँ इसी स्थान पर वापस लाना होगा

इसी मछली के पास

वरना शायद कभी मुझे भी

ऐसे ही तड़पना होगा

ऐसे ही दर्द सहना होगा

आज़ एक दर्द ने ही

दूसरा दर्द सहने से बचा लिया

और मुझे मोहब्बत के रिश्ते का

एक अनोखा रूप दिखला दिया।

डॉ० भावना कुँअर

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