एक दिन
----------------
यू ही शाम को
एक दिन
मेने देखा
सड़क के किनारे
मैली कुचैली धोती मे
बैठे एक गा़़मीण  को 
जो शायद
अपनी जीविका के लिया
आया था
रस्सी बचने
यूं ही बैठे बैठे
सुबह से शाम हो गई थी
पर अभी बोहनी भी नही हुए थी उसकी
सिर पे रखे हाथ
दुनिया  से बेखबर सा
शायद
सोच रहा होगा
क्या दूंगा आज
जब बच्चे मांगेगे खाने को
करूँगा शांत कैसे उनकी छुधा
कोई बहाना भी सूझ न रहा था उसे
पुनः  जागते बीतगी आज की रात भी
और
सुबह भी
चूल्हा  ठंडा ही रहेगा
समझ रही थी
वयथा मै उसकी
सोचा
मै ही बन जाऊँ ग्राहक उसकी
पर
मात्र १० रूपये थे पास मेरे
बाकि थी शब्जी लेनी अभी
आज पैसा है पास मेरे
पर जब
काम नही मिलता तो
मेरे घर मे भी
ठंडी रहती है आग चूल्हे की
ये मुझसे तो बेहतर था
क्यों की
वो बैठ सकता था यहाँ
लेकिन मै
लडकी
तो कुछ कर सकती नही
सिवाय  रोने के
आज तो इतना अन्तर है
इसमे  और मुझमे
के मै
खाना खाऊंगी पेट भर के
वो सो जाएगा पानी पी के

 

HTML Comment Box is loading comments...


Free Web Hosting