एक आकार बन
मेरे मानस में तुम्हारा स्थापन
मुझे ठहरा गया .
न अब कोई प्रतीक्षा है
न भय है तुम्हारे जाने का.
मेरी दीवारें भी
अब तुम्हें खूब पहचानती हैं
महका करती हैं वो
तुम्हारी खुश्बू की भांति और मुझे नहलाती है
मेरी बन्द पलकों पर
वायू का सा एक थक्का
जब
तुम – सा स्पर्श करने को
मांगता है मेरी अनुमति
मैं सहज हीं सर हिला देती हूँ
मेरे सार में विलीन हो जाता है
तुम्हारे अहसास और आवश्यकता का अनुपात
अब तुम सदा मेरे पास हो
उदभव से लेकर
समाहित होने तक.