जीवन के इस तरफ
उस तरफ का अन्धकार
उस तरफ
जाने क्या ?
आगे बढ़ा मैं
रेंगता हुआ
दौड़ जीता |
इस जीत में शामिल थे
मेरे चाहने वाले और
वो जो मुझे पसंद नहीं थे |
अन्दर को
बाहर कि तरफ पलटकर
मैंने कितनी बार
रूप बदला
भटका हुआ मैं
हर घर में
खामोश सा
रोशनी कि दरारों को बंद करता रहा |
पर हर बार
कहीं से रोशनी दीख जाती |
कितने अन्याय देखे
और
चुप रहा
मेरे नीचे कुचलकर कोई
धुंधले राह में
छूट गया
उसे उठाने के बजाय
इधर भाग आया |
और लड़ते लड़ते नहीं
भागते भागते
मारा गया
भीड़ के इस संसार में
हर कोई अकेला
ऐसा जीना भी क्या
कि घर से बहार निकलने के
हर दरवाज़े बंद |
घर भी ऐसा कि
दीवार से बड़ी दरार
भूकंप के बीच
मलबे पर खड़ा |
मैं फिर भी ज़िन्दा रहा
अपनी बातें सबसे कहता
और ख़ुद पर हँसता
और जब अर्थ कि अर्थी उठानी होती
कविता लिख लेता |
रहने और न रहने
के बीच
मैं
और मेरी कविताएँ |
हर गली नुक्कड़ से गुज़रा
अन्याय देखा
और गुण्डों को नमस्कार किया
बोलने का मन बनाकर
घर में ठिठका सा
बुदबुदाया और सो गया |
उठकर मैंने फिल्म देखी
गाना गाया
ज़िन्दगी में बड़ा मज़ा आया !!
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