गंगा
 
स्वर्गलोक    के      सूत्र    सदृश
भूलोक  को  उससे   मिलाने  वाली
चंचल , चमकीली,  मणि   विभूषिता
शून्य  के  अनंत  पथ  से  उतरकर
धरा,शतदल पर निर्भीक बिचरने वाली
पतित पावनी, वंदनी, दुखहारणी, गंगा
 
यह  जान चिंता  से दृष्टि  धुँधली हो गई
स्मृति    सन्नाटे    से    भर     गई
सुना  जब    तुम   छोड़   धरा    को
फ़िर   से, उस  स्वर्गधाम  को  जा  रही 
जहाँ से ऋषि भगीरथ ने उतारा था तुमको 
कर    अनंत   विनती  , घोर   तपस्या
 
तुम   बिन, कर   जगत   की    कल्पना
कंठ    रुद्ध    हो   जाता,   रोम -  रोम
भय    कंपित    हो   खड़ा   हो   जाता
आँखों   से   होने   लगती   अश्रु   बरषा
श्रद्धा   कहती, जब   तुम  न  होगी  गंगा
तब  किसके   चरणों   में   कर   अर्पित
तन- मन   हम  अपना, किसके  नाम का
सौगंध    खायेंगे   हम  ,  कौन   भरेगा
छू-छू कर धरा धूलि के कण-कण में चेतना
कौन दग्ध धरा के आनन को,घने तरुओं के 
कोमल  पत्ते  से  आवृत  कर  रखेगा ठंढ़ा
 
 
कौन  हमारे उर में  अमर धनवा को बाँधकर
अंतर  को  निर्मल करेगा ,कल-कल,छल-छल 
किल्लोल  कर, हमारे  जीवन  जलनिधि  में
डोल- डोलकर  मलिन  मन को  करेगा चंगा
तुम्हारी छोटी बहन,सरस्वती भी तो नहीं रही
जो  तुम्हारा होकर  ढाढ़स बँधायेगी जग को
नयनों में नीरव स्वर्ग प्रीति को विकसित कर
उर  को  मधुर  मुक्ति  का  अनुभव कराकर
शत  स्नेहोच्छ्वासित  तरंगों  की  बाँहों  में
भू  को  भरकर, युगों  की   हरेगी   जड़ता
कौन  सुनायेगा  वन  विटपों  के डाल-डाल को
हिला- हिलाकर, उस  नील  नीरव  का  झंकार
जहाँ  से अदृश्य  हाथ  बाँटता  रहता कनियार
कौन आत्मा की भू पर,बरषाकर अकलुष प्रकाश
ग्यान, भक्ति ,गीता  का करेगा  शोभन विस्तार
 
गंगा !  सुंदर   उदार   हृदय   तुम्हारा
उसमें  इतना  परिमित,  पूरित   स्वार्थ
बात कुछ जँचती नहीं,दीखता नहीं यथार्थ
विश्व  मानव   का   विश्वास   जीतकर
मन  से  मन, छाती से  छाती मिलाकर
धरा  पर प्रकृति  भरा  प्याला  दिखाकर
फ़िर  से  चली  जाओगी  क्षितिज  पार
इस तरह उड़ाओगी हमारी आशा, उपहास
मन मानता नहीं,दिल करता नहीं विश्वास
गंगा क्या तुम नहीं जानती,तुम्हारे जाने के बाद
किरकिरा  हो जायेगा ,धरा पर जीवन का मेला
फ़िर  न दीखेगी  विजन में,भीड़ या रेला,गंगा !
यहीं   पुलकित,  प्लावित    रहो, ललक  रही
तुम्हारी  पाँव  चूमने,  तरु  तट   की   छाया
 

 
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