गेट आउट
जब चाहे तब
गेट आउट किया जाता है मुझको
जैसे गुस्से से निकाला जाता है नौकर को कमरे से ।
बड़ी मन्नत मनौती के बाद
वे कहते हैं चलो ठीक है
लेकिन अपनी औकात में रहा करो
आइन्दा ऐसी गलती नहीं होनी चाहिए ।
अंगूठे से कुरेदते हुए जमीन हामी भरनी होती है
तब कहीं जाकर वे भीतर बुला लेते हैं शरणार्थियों की तरह।
मेरा कहीं भी वजूद नहीं रहता
ज़रा सी चूं चपेट होने की देर है
बिना किसी मुरव्वत के गेट आउट की जा सकती हूं।
मेरे ही दम पर चलती है उनकी गृहस्थी
सुबह का नाश्ता दोपहर का लंच
और रात का खाना
टाइम पर दूध और दवाइयां देना
सभव नहीं है मेरे बग़ैर ।
ये जो घर है महज
खिड़की दरवाजे फर्नीचर बर्तन भाण्डों से नहीं बनता
इसे बनाया जाता है एक अदद औरत से
अपनी सम्पूर्ण आत्मा ऊंढ़ेल कर।
गेट आउट उनका आखिरी दांव है
तीस दिनों के महिन भर में
उन्तीस दिन गेट आउट होना प़ड़ता है
बहुत ही बेइज्जती के साथ
फिर भी उनका मन नहीं भरता ।
झेलना पड़ता है बार बार
गेट आउट कह जिल्लत
बावजूद इतना सब होने के
गेट इन होती हूं
उनको भी आने वाले समय में
गेट आउट करने का
संकल्प लिए।
डा कृष्णशंकर सोनाने