दरखतों के बीच से गुजरता जब कोई परिंदा धूप और बैसाख की परवाह किए बिना हर शाख बुनती तब एक घरौंदा दूधिया, धवल या फिर हो सुआपंखी हर रंग में लुभाती जिन्दगी दाना - दाना खाने लिए अधखुली चौंचे हर दम करती मानो बंदगी पीन पंख फड़फड़ाएं उड़ने को जी चाहे हर मंजिल अनजानी, है नई डगर न जाने राह लम्बी आंख अभी धुंधली हर आहट...डराये, है जोश मगर नव कौंपल जब नीड़ कोई सजाए नभ भर लाये झोली भर सितारे तब सूरज चंदा मिलजुल कर सारे नववर्ष की संध्या पर नव गान पुकारे प्रेम सुधारस बरसाये राग मधुर सुनाये
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