बह चुका आंसानियत का खून कई बाजार में
कोसते हैं लोग सब अब तुम्हें इस संसार में
सिरफिरों ! आतंकवादी ! आदमियत के दुश्मनों
आदमियत को भी तो समझो लौट फिर इंसा बनो
निरपराधों की निरर्थक ले रहे तुम जान क्यों
नासमझदारी पै अपनी है तुम्हें अभिमान क्यों
आये दिन चाहे जहाँ पर लगाते तुम आग हो
जला के रख देगी वह ही तुम्हारे ही बाग को
खून का औ आग का ये खेल है अच्छा नहीं
तुम्हारा ये जुनुं कल कर सकेगा रक्षा नहीं
आदमी हो ये नहीं है आदमी का आचरण
कुत्तों सा होता है जग में दुष्टों का जीवन मरण
जाति के भाषा के या फिर धर्म के उन्माद में
जो भी उलझे जग को उनने ही किया बरबाद है
किये तो विस्फोट इतने पर तुम्हें है क्या मिला
बद्दुआयें लेने सबकी कब रुकेगा सिलसिला
मिटा के औरों के घर परिवार उनकी जिंदगी
कर रहे हो तुम समझते हो खुदा की बन्दगी
तो ये जानो हर तरह से ये तुम्हारी भूल है
बोता जो जैसा वही मिलता उसे ये उसूल है
कुछ न हासिल होगा खुद के किये पै पछताओगे
कमाने को पुण्य निकले पाप में मिट जाओगे
राख हो जाओगे जलकर जुल्म की इस राह में
गलाने की शक्ति होती त्रस्त की हर आह में
जहाँ जन्में पले विकसे और सब कुछ पा रहे
उसी अपने देश और समाज को क्यों खा रहे
सही सोच विचार अब भी दिला सकता यश बड़ा
ज्योंकि अब्दुल हमीद को सम्मान पदक सुयश जड़ा

 

HTML Comment Box is loading comments...

 
 
 

Free Web Hosting