जल-वृष्टि
[महेंद्रभटनागर]
पानी
बरसा,
पानी
बरसा!
देख
रहे
थे
आसमान
को
जब
प्यासी
आँखों
से
जन-जन,
सिर
पर
ज्वाला
का
बोझ
लिये
जब
साँसें
भरते
थे
तरु-गण,
शांत
हुए,
जैसे
ही
टप-टप
पानी
बरसा,
पानी
बरसा!
लरज-लरज
कर
बिजली
चमकी
घुमड़-घुमड़
कर
गरजे
नव-घन,
भीग
गया
रे
दूर
क्षितिज
तक
नंगी
शुष्क
धरा
का
कण-कण,
जगती
को
नव-जीवन
देने
पानी
बरसा,
पानी
बरसा!
इस
जल
में
नूतन
जग
की
रचना
का
सफल
प्रयास
छिपा,
इस
जल
में
त्रस्त
मनुजता
का
सुन्दर
निश्छल
मधु-हास
छिपा,
नवयुग
का
नव-संदेश
लिए
पानी
बरसा,
पानी
बरसा!
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