"झील को दर्पण बना"

रात के स्वर्णिम पहर में
झील को दर्पण बना
चाँद जब बादलो से निकल
 
श्रृंगार करता होगा
चांदनी का ओढ़ आँचल
धरा भी इतराती तो होगी...
 
 
मस्त पवन की अंगडाई
दरख्तों के झुरमुट में छिप कर
 
परिधान बदल बदल
मन को गुदगुदाती तो होगी.....
 
नदिया पुरे वेग मे बह
किनारों से टकरा टकरा
 
दीवाने दिल के धड़कने का
सबब सुनाती तो होगी .....

खामोशी की आगोश मे
रात जब पहरों में ढलती होगी
 
ओस की बूँदें दूब के बदन पे
फिसल लजाती तो होगी ......
दूर बजती किसी बंसी की धुन
पायल की रुनझुन और सरगम
अनजानी सी कोई आहट आकर
तुम्हे मेरी याद दिलाती तो होगी.....

 

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