कारवाँ आगे निकल जा रहा

 

 

अब समझ में आया, इस दुनिया का रचयिता

मनुज को धरा पर भेजने से पहले, गगन को

भेद, चिर जागृत शिखा, सूरज को  क्यों गढ़ा

उर  में  तृषा,  मूक    प्राण  में  वाणी  को  क्यों भरा

आहत  मन की आँखों  में, लोलुपता को भर

असहाय मनुज  का  मेला, यहाँ क्यों लगाया

 

सोचा दो घड़ी भी मानव की वेदना रहित न बीते

हर  भोर, एक   नया  सवाल  लेकर  हो  खड़ा

अश्रु  पोछ,  पत्थर – पहाड़ों   से   बातें  करे

मिले      कभी  मैत्री  की   शीतल   छाया

युग- युग  का  यह  पथिक  भ्रांत, जिसे  दवा

समझ  जीये, वही  बने  इसकी   अनंत  पीड़ा

 

देख   कुसुमित   फ़ूलों   की  छाँह

मनुज    ठहर     जाये   कहीं

कुसुम- कुसुम  में  वेदना  को भरा

जीवन- मृत्यु के बीच प्राण को लाया

कहा !  अग्नि  देवता  दया  करेगा

तुम्हारी  चिता पर, काया तो जलेगी

मगर  बचा   रहेगा, प्राण   तुम्हारा

क्योंकि  हम  नहीं चाहते जीवन को

अंत मिले, माना, दाह्यमान मनुज का

जीवन है,मगर मनुज,देह तक ही जले

 

 

 

 

साँस- साँस   पर   बोझ   भारी  बना   रहे

उसने  ऊपर  व्योम, नीचे  पाताल  को  रचा

उर-उर में फ़ूलों के कुटिल विशिखों को भरकर

कर्मभूमि  के  थके  पथिक  से कहा ,परदेशी !

कुछ   पल   बैठ  यहाँ ,निज  श्रांति  मिटा

और  बता, किस  किनारे  नाव लगाऊँ, देखो

ऊपर  आकाश  की ओर, शाम ढलता जा रहा

 

मगर यह न पूछ सके मनुज कभी,मालिक !

तुम्हारी महफ़िल में है और क्या-क्या छुपा

मैं  दूर  देश  का  यात्री हूँ, पल  दो पल

ठहरना चाहता था  यहाँ, मिलते ही आदेश

तुम्हारा,   चला   जाऊँगा   यहाँ     से

बजा शंख,मेरा कारवाँ आगे निकल जा रहा

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