यार वो बचपन के दिन !
जब बारिश होती थी
और हम भींग जाते थे !
खेलते थे रोज़ नए खेल
दौड़ते हँसते
उछल कूदते
घास पर लकीर खींच
राजा बन जाते किसी देश का
और पत्तों के पैसों से
खरीद लाते कार
और फिर रूकती थी बारिश
तो माँ निकलती थी घर से
और निकलती थी सुनहरी धूप
और दूर कहीं
किसी को इन्द्रधनुष दिख जाता
फिर क्या !
उसी इन्द्रधनुष पर हम
फिसलते चले जाते
चले जाते बादलों पर
पनघट पर बादलों के
मटके भरते ख़ुशियों से
और सूरज हमारे चुल्लू में चमक पड़ता
उस हंसते सूरज को लौटता देख
चाँद आता हमारे संग खेलने को
और हम चाँद का हाथ थाम
गोल गोल परिक्रमा करते
पृथ्वी की
जो बसी होती
हमारी आँखों में कहीं !
ऐसी सुनहरी शाम
और ऐसी चमकीली रात
आज भी बच्चों की आँखों में दिखता है
और ये पागल कवि जाने क्या सोच
काग़ज़ पर जाने क्या क्या लिखता है -
यार वो बचपन के दिन !
जब बारिश होती थी
और हम भींग जाते थे...
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