कविता- किसान का दर्द
बदन उघारा दीखता, मिला पीठ में पेट।
भोले-भाले कृषक को, ये ही मिलती भेंट।।
खाद-बीज महँगा हुआ, मँहगा हुआ लगान।
तेल-सिंचाई सब बढा, संकट में हैं प्राण।।
महँगाई बढ़ती गयी, सब कुछ पहुँचा दूर।
सस्ते में अपनी उपज, बेचे वो मजबूर।।
रातों को भी जागता, कृषि का चौकीदार।
भूखा उसका पेट तक, साधन से लाचार।।
हमें अन्न वो दे रहा, खुद भूखा ही सोय।
लाइन में भी वो लगे, खाद वास्ते रोय।।
अदालतों के जाल में, फँस कर होता तंग।
खेत-मेंड़ महसूस हो, जैसे सरहद जंग।।
ब्याहन को पुत्री भई, कर्जा लीया लाद।
बंजर सी खेती पड़ीं , कैसे आये खाद।।
धमकी साहूकार दे, डपटे चौकीदार।
आहत लगे किसान अब, जीवन है बेकार।।
सुख-सम्पति कुछ है नहीं, ना कोई व्यापार।
कर्ज चुकाने के लिए, कर्जे की दरकार।।
गिरवीं उसका खेत है, गिरवीं सब घर-बार।
नियति उसकी मौत सी, करे कौन उद्धार।।
मजदूरी मिलती नहीं, गया आँख का नूर।
आत्महत्या वो करे, हो करके मजबूर।।
उसको ठगते हैं सभी, कृषि के ठेकेदार।
मौज मनाते बिचौलिए, शामिल सब मक्कार।।
कृषक के श्रम से जियें, शासक रंक फ़कीर।
परन्तु हाय उसी की, फूटी है तकदीर।।
हम है कितने स्वार्थी, काटें सबके कान।
मंतव्य पूरा हो रहा, क्यों दें उस पर ध्यान।।
कृषि प्रधान स्वदेश में, बढ़ता भ्रष्ठाचार।
यदि चाहो कल्याण अब, हो आचार विचार।।
--अम्बरीष श्रीवास्तव