‘वो’ आते हैं |
अकस्मात् कुत्ते ज़ोर-ज़ोर से
रो जाते हैं |
अपने ऊपर ढही हुई इस रात में
सन्नाटा
एक स्थिर गाढ़ापन है
जो आधी धरती से लिपट पड़ती है
जिसमे ‘वो’ तुम्हे
फेंक देते हैं
कंकड़ की तरह
और ख़ूनी लहरें
लाल व्याहत अँधेरे में
ऊब-डूब हिलतीं हैं |
तुम सड़ रहे हो मर कर
लड़ोगे ? क्योंकर ? आखिरकर ?
टूटी तेरी इमारत की
धसकती मुंडेर पर
चील कौवे बैठ देखते हैं तुम्हे
गर्दन टेढ़ी कर
तुम मिन्नतें मांगते हो
हाथ पैर जोड़ते हो
हो निहत्थे भर
हड़बड़ी में इधर उधर
भागते हो ‘उससे’
पर ‘वो’ तुम्हे
कुल्हाड़ी की तरह पटक देतें हैं
पेड़ों पर
लड़ोगे ? क्योंकर ? आखिरकर ?
कटे हाथों से
भिन-भिनाती एक मक्खी नहीं भगा सकते
जो चाटती, पीबती है
रिसते घाव पर |
किसी की पीठ क्या थपथपापोगे ?
कांपते हो थर थर
लड़ोगे ? क्योंकर ? आखिरकर ?
कल का गणतंत्र
आज का गणीकाना है
तुम्हे अपनी
हुल्लड़ मौत को ओढ़
ताली बजाना है |
मौत का मातम हो ऐसा
कि अपनी परछाई से जाओ डर
सूर्य, चन्द्र, आकाश
शस्त्र बन, चोट कर
रह गायें हैं शास्त्र भर
इस प्रलय की घड़ी पर
लड़ोगे ? क्योंकर ? आखिरकर ?
रक्त वर्षा ऐसी की
अँधेरा भी लाल !
‘वो’ तुम्हे बोटियों में बाँट कर
वर्तुल में देंगे उछाल |
गटर में पड़े तरसते हो
बूँद बहर गंगाजल को
गंगा कबकी सूखी पड़ी !
तरसते हो
बूँद भर पानी को
पानी गाढ़ा हो
सड़
बना है यह गटर
‘वो’, खुद, ख़ुदा,
मक्खी, कुत्ते,
चील-कौवे,
शस्त्र, शास्त्र,
पानी या गटर ?
किससे लड़ोगे ? क्योंकर ? आखिरकर ?
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