आह रे , वह अधीर यौवन !

मत्त मारुत पर चढ़ उद्भ्रान्त,
बरसने ज्यों मदिरा अश्रान्त –
 
सिंधु बेला सी घन मंडली,
अखिल किरनों को ढँककर चली,
 
भावना के निस्सीम गगन ,
बुद्धि चपला का क्षण नर्तन –
 
चूमने को अपना जीवन,
चला था वह अधीर यौवन !
 
आह रे , वह अधीर यौवन !
अधर में वह अधरों की प्यास,
नयन में दर्शन का विश्वास,
 
धमनियों में आलिंगन मयी –
वेदना लिये व्यथाएँ नयी,
 
टूटते जिससे सब बंधन ,
सरस सीकर के जीवन – कन,
 
बिखर भर देते अखिल भुवन,
वही पागल अधीर यौवन !
 
आह रे , वह अधीर यौवन !
मधुर जीवन के पूर्ण विकास,
विश्व – मधु – ऋतु के कुसुम विकास,
 
ठहर, भर आँखों देख नयी –
भूमिका अपनी रंगमयी,

 

HTML Comment Box is loading comments...

 

Free Web Hosting