माँ
 
माँ
नहीं है
बस माँ की पेंटिंग है,पर
उसकी चश्में
के फ़्रेम से झाँकती आँखें
देख रहीं हैं बेटे के दुख:
 
बेटा 
अपने ही घर में
अजनबी हो गया है
 
वह
 अलसुबह उठता है
पत्नी के खर्राटों के बीच
अपने दुखों
 की कविताएँ लिखता है
रसोई में जाकर
चाय बनाता है
तो मुंडु आवाज सुनता है
कुनमुनाता है
फिर करवट बदलकर सो जाता है
 
जब तक 
घर जागता है
बेटा शेव कर नहा चुका होता है
 
नौकर 
ब्रेड और का नाश्ता
टेबुल पर पटक जाता है क्योंकि
उसे जागे हुए घर को
बेड टी देनी है
 
बेड टी
 पीकर
बेटे की पत्नी नहीं?
घर की मालकिन उठ्ती है
हाय सुरु!
[सुरेश भी नहीं]
कह बाथरुम में घुस जाती है
 
माँ सोचती है
वह तो हर सुबह उठकर
पति के पाँव छूती थी
वे उन्नींदे से
उसे भिंचते थे 
चूमते थे फिर सो जाते थे
पर
उसके घर में,
उसके बेटे के साथ
यह सब क्या हो रहा है
 
बेटा
ब्रेड चबाता
काली चाय के लम्बे घूंट भरता
सफेद पीली नीली तीन चार गोली
निगलता
अपना ब्रीफ़्केस उठाता है
कम्र्रे से 
निकलते-निकलते
उसकी तसवीर के सामने खड़ा होता है
उसे प्रणाम करता है
और लपक कर
कार में जा बैठ्ता है
 
माँ
की आंखें 
कार में भी उसके साथ हैं
बेटे का सेलफोन मिमियाता है
माँ
डर जाती है
क्योंकि रोज ही ऐसा होता है
 अब
बेटे का एक हाथ स्टीयरिंग पर है
एक में सेलफोन है
एक कान 
सेल्फोन सुन रहा है
दूसरा ट्रेफ़िक की चिल्लपों ,
एक आँख फ़ोन 
पर बोलते व्यक्ति को देख रही है
दूसरी ट्रेफिक पर लगी है
माँ डरती है
सड़क भीड़ भरी है
कहीं कुछ अघटित न घट जाये
 
पर शुक्र है
बेटा दफ्तर पहुंच जाता है
कोट उतारकर टांगता है
टाई ढीली करता है
फाइलों के ढेर में डूब जाता है
 
उसकी सेक्रेटरी
 बहुत सुन्दर लड़की है
वह कितनी ही बार बेटे के
केबिन में आती है
पर बेटा उसे नहीं देखता
फ़ाइलों में डूबा हुआ
बस सुनता है,कहता है
आँख ऊपर नहीं उठाता
माँ की आंखें सब देख रही है
बेटे को क्या हो गया है
 
बेटा
दफ्तर की मीटिंग में जाता है
तो उसका मुखौटा बदल जाता है
वह थकान और ऊब उतारकर
नकली मुस्कान औढ़ लेता है
बातें करते हुए
जान-बूझकर मुस्कराता है 
फिर दफ्तर खत्म करके
घर लौट आता है
 
पहले वह 
नियम से क्लब जाता था
बेडमिन्ट्न खेलता था
दारू पीता था
खिलखिलाता था
उसके घर जो पार्टियां होती थीं
उनमें ज़िन्दगी का शोर होता था
पार्टियां
अब भी होती हैं
पर जैसे
कम्प्यूटर पर प्लान की गई हों
चुप-चाप स्काच पीते मर्द
सोफ्ट ड्रिंक्स लेती औरतें
बतियाते हैं मगर
सब बेज़ान
सब नाटक
ज़िन्दगी नहीं
 
बेटा लौटकर टी.वी खोलता है
खबर सुनता है
फिर अकेला पेग बनाकर
बैठ जाता है
 
पत्नी
बाहर क्लब से लौट्ती है
हाय सुरु!
कहकर अपना मुखौटा
तथा साज-सिंगार उतार कर
चोगे सा गाऊन पहन लेती है
पहले पत्नियां
पति के लिये 
सजतीं संवरती थीं
अब तो वे पति के सामने
लामाओं जैसी आती हैं
किसके लिये 
सज संवरकर क्लब जाती हैं ?
माँ समझ नहीं पाती है
 
बेटा 
पेग और लैपटाप में डूबा है
खाना
लग गया है
नौकर कहता है
घर
डायनिंग टेबुल पर आ जमा है
हाय डैड-हाय पापा!
उसके बेटे के बेटी बेटे मिनमिनाते हैं
और अपनी प्लेटों मे डूब जाते हैं
बेटा बेमन से 
कुछ कौर निगलता है
और बिस्तर में आ घुसता है
 
कभी अख्बार
 कभी कोई पत्रिका उलटता है
 
फिर दराज़ से 
निकालकर गोली खाता है
मुंह ढ़्ककर
सोने की कोशिश में जागता है
बेड के दूसरे कोने पर
बहू के खर्राटे गूंजने लगते हैं
 
बेटा 
साइड लैंप जलाकर
डायरी में
अपने दुख:
समेटने बैठ जाता है
 
माँ 
नहीं है
उसकी पेंटिंग है
उस पेंटिंग के चश्मे के
पीछे से झाँकती
माँ
की आँखे देख रही हैं
घर-घर नहीं रहा है
होटल हो गया है
और
 उसका अपना बेटा
अपने 
ही घर में है
महज़ एक
अजनबी
 
                श्यामसखा"श्याम"
 

 
HTML Comment Box is loading comments...
     
Free Web Hosting