मै कुछ कहना चाहती हूँ जिभ्या होते गूंगी रही अब तक पर अब नही अब मै बोलना चाहती हूँ मै कुछ ........................... घर समाज दुनिया मे किनारे की गई बहुत हाशिये पे रह के जी ली बहुत अब मै मुखय प्रष्ठ पे आना चाहती हूँ मै कुछ ......................................... सहती रही , सभी की आज तक झुका के नजर चलती रही आज तक इस दुनिया से अब नजर मिलाना चाहती हूँ मै कुछ ............................................. कभी ममता ,कभी सिन्दूर की कसौटी पे कसी गई हमेशा मातहत की तरह सुनती रही हमेशा अब अधिकारी बन आदेश सुनना चाहती हूँ मै कुछ ............................................. आपनी तरह से , हर वक्त चलाया हमको आग मे जलाया तो कभी विष पिलाया हम को माँ दुर्गा बन हर अन्याय से लड़ना चाहती हूँ मै कुछ .............................................. देश मे रहें या विदेश मे , छल गया हम को हर परिवेश मे नदी बन संकुचित होली बहुत अब सागर सा विशाल होना चाहती हूँ मै कुछ ......................................... जिस समाज जो जनमा हमने उस पे क्यों हमारा अधिकार नही अबला प्रिये अब हम को स्वीकार नही महिलाओं के लिए समपूण सम्मान चाहती हूँ मै कुछ .......................................... साल का एक दिन देके बाकि सब दिन लेलेते हो ये कैसी राजनीत करते हो एक दिन का भुलावा अब नही अब हर दिन पे मै आपना अधिकार चाहती हूँ मै कुछ ...........................................................
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