मानवता
के
शत्रु
नृशंस, आदिम, व्यभिचारी, लोक विनाशक
युग विद्रोही, दुराचारी,बर्बरता का प्रतिनिधि
मनुष्यता से बंचित, पशुओं से भी कुत्सित
रक्तभोगी, मनोमस्तिष्क
रोगी
न हिन्दू, न
मुसलमान, न
ईसाई
न द्रविड़, न
आर्य, न परम्परा का प्रहरी
मुट्ठी में संघार लिए,हिंस्र सभ्यता के हुंकार में
चिल्ला- चिल्लाकर, जग मानव
से कह
रहा
सूरज बरसा
रहा है
धरा पर पावक
धाराएँ
अग्नि जीवन
कंदर्प को
भस्मसात कर रही
लगता भू
जीवन के,एक वृत का होनेवाला है
समापन, धरा पर घोर विभीषिका है
छानेवाली
लोग भाग रहे
हैं अपनी ही छाया के भय से
प्रकृति के तत्वों
में है
भगदड़ मची
हुई
जन प्रांगण में निर्जनता प्रतिफ़लित हो रही
महामृत्यु मुँहफ़ाड़
कर खड़ी
हँस रही
प्रकृति भूतवाद
का युग
–दर्शन कराकर
लोक जीवन समुद्र को आन्दोलित कर रही
नव द्वंद्वात्मक जाल में उलझा मनुज, रीति-
नीति की शत मर्यादाओं को तोड़ नहीं पाता
आकाश वेलि
सा फ़ैला
पाप-पुण्य
स्वर्ग- नरक
के तर्कजाल
में उलझा
विद्रित प्राण
लिए, जीवन से
पराजित
पत्रों की छाया में, छुपी खुशी को खोज रही
छाया से
अपरिचित, गंध जग
से अग्यान
नियति का
दास, मनुज को
नहीं मालूम
जीवित स्वप्नों के
लिए मुर्दों को राह देना होगा
पत्तियों पर गूँजती ओस की आवाज समझना होगा
तभी बुद्धि में नभ
का सुवास
समझ में आयगा
मुक्त हो
रहा इन्द्रासन
महाव्याल
से
वहाँ बैठकर, अपना ध्वज
फ़हराना होगा
फ़िर मनुज
देहों के
रक्त - मांसल
से
धरती का फ़िर से नव-निर्माण करना होगा
जब तक धरती के रज में भावुक हृदय का
उर्वर मस्तिष्क
एकाकार
नहीं होगा
तब तक, भू
का आनन
नहीं बदलेगा
देखना मनुज
तन का
यह भष्मावशेष
चिरकाल भष्मावृत
बनकर नहीं
रहेगा
एक दिन
इस भष्मावशेष
से मनुज
फ़िर से
जनम लेकर
जी उठेगा
इसमें है भूत सत्य का अमृत अंश भरा हुआ
यह विध्वंशक
एक दिन
निर्णायक बनेगा
नव संस्कृति का अंत:स्मित जब,नव किरणों से मंडित होगा
तब जीवन
के संघर्षों
की प्रतिध्वनियाँ,
हाहाकार में
बदलकर मनुज
को
विद्रित नहीं
करेगा
स्वप्नों के
घर जीवन
आकांक्षाएँ
नहीं खेलेंगी
बल्कि जीवन
रज
को पाकर
धरा कुसुमित
रहेगी
जग के सुख
-दुख, पाप-ताप,
तृष्णा-
ज्वाला से
अलग होकर
जी रहा
समाधिस्थ
हिमालय
शांति आत्मानुभूति
में लय
हो
जाएगा
जब तक
युग खंडहर
का
एक भी भग्नावशेष
बचा रहेगा
कोई न कोई
लेकर अपने हाथों में
युग दीपक
यहाँ आता
रहेगा
अपने अंतर
की सृजन
प्रेरणा
से
सृजित कर,गंधहीन उसास भरता रहेगा
इसलिए आकुल
उच्छ्वासों
के सौरभ
को
नीरवता के मुकुलों में
मूर्तित
करना होगा
नवल चेतना की जब बरसेगी स्वर्णिम किरणें
धरा पर,
तब मनुष्यत्व
की फ़सल
स्वर्णिम मंजरियों
से विभूषित
होगी
जब तक सुख के तृण,दुख के स्वर से चुनकर
प्राण कामना का पंकिल मुख नहीं सजायेगा
तब तक
तैलचित्र से
उभरी
जीवन की अभिलाषा का शैल छायांकित रहेगा
उड़ते दुख के मेघों में, सुख वन के अनगिनत
वर्णों के
स्वर
सा कंपित
रहेगा