पर्यावरण

 

यह जन धरणी , मनुजों का स्वर्ग-घर बनी रहे

पत्ते- पत्ते  पर श्याम  द्युति  हरियाली छाई रहे

सृष्टि ने गगन से उतार,गंगा को धरा पर लाया

सोचा, इसकी शीतलता  से दुष्काल अपने आप

दूर   भागेगा,  सुधा   वृक्ष   उन्नत    होगा

मनुज मन  के सहज  वृत पर  ग्य़ान जागेगा

तब  मनुज  को  निज  मंगल का  बोध होगा

 

सुंदर  सुखद सूर्य  से  सेवित  यह धरा होगी

इसके समक्ष प्राच्य सिंधु का मुक्ता तुच्छ होगा

बरसेगा  रिमझिम   कर   रंग  अम्बर   से

मन-मन का स्वप्न मन से निकलकर भीगेगा

तब पथ  जोहती कूल  पर वसुधा  दीन-दुखी

श्रांत, प्यासे  असुरासुर  से  थकी  नहीं होगी

हर  तरफ़, क्षीर  कल्प, जलपूर्ण  सर- सरित

अगरु   सौरभ  से   भरित   पवन    होगा

 

लेकिन मनुजों का विप्र,लोक जीवन के प्रतिनिधि

को  तरु  पत्रों  के  अंतराल  से  छन-छन कर

लोट रही भू रज पर किरणें, मन  को नहीं भायीं

कहा, हम  हैं लोक  जीवन  के  भावी  निर्माता

युग  मानस  घोर  अंधविश्वास  के   कोहरे  में

है   लिपटा   हुआ,  उसे   यह   नहीं    पता

युग  जीवन  का  स्वर्णिम  रूपांतर  कैसे  होगा

कैसे  जीवन मन  की  अतल  गहनता का वैभव

सूक्ष्म प्रसारणों से मन को ज्योति चमत्कृत करेगा

 

इसके लिए हमें  भू को  पुन:स्थापित करना होगा

रौंदकर  फ़ूलों  की घाटी को, तोड़- मरोड़कर शोभा

पल्लव  शाखाओं  को ,धरा धूलि में मिलाना होगा

प्रकृति      संग     संघर्ष     सीखना   होगा

तृण तरु जो जकड़ा रहता,धरा मिट्टी को दैत्यसा

जिससे  घायल  - दुखी , काँपता  रहता   भूतल

चित्कारें  गुंजती  दोहरी होकर, फ़टता गिरि-अंबर

 

उसे  अपने  प्रलय  वेग  से  छिन्न- भिन्न  कर

जीवन    पथ    को   विस्तृत   करना   होगा

तभी  पावन  मोहित, निर्मित  घाटियाँ  जो  चिर

करुणा, ममता के स्वर्णिम प्रकाश से रहतीं वंचित

जहाँ सभ्यता  अब  तक  नहीं  पहुँच सकी, जहाँ

प्रकृति की निर्ममता बीहड़ बन,घुसकर रहती खड़ी

जिससे सतत बढ रही अंधियाली,उसे मिटाना होगा

 

यही सोचकर मनुज मुट्ठी में अणुसंघार लिये

भावी  की आशंका से, विश्वविनायक बन गया

कहा, झाँक  रही नवल  रूपहली आशा, धरा को

इसमें ,प्रकृति  रचित  फ़ूलों  को  मुरझाने  दो

पत्रों की मर्मर में झंकृत नहीं हो पाती,हृदय वीणा

का  स्वर, यह  विस्तृत  कड़ी  जगतक्रम की

इससे  समृद्धि  परिणति   कदापि  संभव  नहीं

इस  देवत्व , लोकोत्तर   को  मत   बढने  दो

  

आज धरा मनुज का जीवन,काल ध्वंस से है कवलित

तृष्णा के जीवन चक्की से इतना धुआँ निकलता रहा

नये  सूरज को  लाने  में  चिमनी बन  गयी धरती

होता   तप्ताकाश  शून्य,  जीवन  जलता  मरु- सा

किरणों  में  सप्त  रंग  फूल अब  नहीं होते, कारण

यहाँ   साँस  लेती  अब  कोई  हरीतिमा,  ही

उसे  चूमने   सागर  की  लहरियाँ   ही   मचलतीं

 

मनुज  कृत  प्रेतआत्माएँ अरण्य में रोदन करतीं

रिक्त ज्योति,महा मृत्यु बन वृहत पंख पसारे रहती

तृष्णा  भट्ठी की ओदी  आँच पर धुँधुवाती रहती

मिट्टी  का  यह नूतन  पुतला, अल्हड़ अभिमानी

सुरपुर  को बर्बाद  कर, वीरानों में जन्नत आबाद

करना  चाहता, मगर  उसे  नहीं  पता  अंधेरे में

केवल  उन्मादक  फूल खिलते, जिसे कल्पना का

मोहक  सामान   तो  सौंपा  जा  सकता, इससे

दग्ध,    प्यासी   लघु   चाह   नहीं    मिटती

HTML Comment Box is loading comments...

 

 

Free Web Hosting