पतंग चाहता है उड़ना , उँचे आकाश में.... वो उठता है गिरता है बार-बार, और आख़िरकार उड़ जाता है उँचे आकाश में .... फिर भी यहाँ ख़त्म नही होती उसकी जद्दोजहद.... जिसमे होती है हिम्मत, जिसका हौसला होता है बुलंद, वो रहता है उँचे आकाश में ..... जीत का पताका लहराकार वो लौट आता है ज़मीन पर, औरो के लिए..... पर जो जीत की खुशी मे, मचलने लगता है, बहकने लगता है, तोड़ लेता है संबंध जब, ज़मीन से अपना, तब.... नीचे शुरू होता है तांडव उसके मौत का !!!! और ज़मीन पे आने से पहले ही, ख़त्म हो जाता है उसका अस्तित्व...... हा ! अस्तित्व..... मनुष्यों की नीयत कुछ पतंग जैसी होती है, और मनुष्यों की नीयती भी. पतंग जैसी हो जाती है !!!! ....... सुजीत
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